मूकनायक मीडिया ब्यूरो | 05 अगस्त 2024 | जयपुर : माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए इस निर्णय से संविधान में SC/ST को दिए आरक्षण की मूल भावना का ही खात्मा हो गया है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने पूर्व में दिए निर्णय को ही उच्च बेंच के माध्यम से बदल दिया। आखिरी सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के पीछे कौन हैं?
सुप्रीम कोर्ट का आरक्षण में वर्गीकरण, पेशवाई राज की ओर पहला कदम
सुप्रीम कोर्ट के सात न्यायधीशों की संविधान पीठ ने गुरुवार को एक संविधान विरोधी दुर्भाग्यपूर्ण फैसला दिया। इसमें कहा गया कि राज्य को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने के लिए अनुसूचित जातियों का उप-वर्गीकरण करने का अधिकार है।
जब आरएसएस-बीजेपी और तमाम मनुवादी ताकतें उनकी मंशा ठीक नहीं है, एससी और एसटी को दिए गए आरक्षण को खुद खत्म करने के बजाय, वे इसे कोर्ट के जरिए से खत्म करने की कोशिश कर रहे हैं और अब वे इसमें अधिकांशत: सफल भी हो गये हैं।
सुप्रीम कोर्ट का आरक्षण में वर्गीकरण, पेशवाई राज की ओर पहला कदम
सुप्रीम कोर्ट ने अपने अमानवीय निर्णय से पेशवा राज की ओर पहला कदम बाधा दिया है। इसी तरह का एक क्रूर नियम पेशवाई और त्रावणकोर के ब्राह्मण शासकों द्वारा दलितों और आदिवासियों पर थोपा गया था। दलितों को सड़क पर चलते वक्त अपने पीछे एक झाडू बांध कर चलना होता था ताकि वे जिस रास्ते से गुजर रहे हों उसे साफ करते चलें। इन सभी बातों को आप बी आर अंबेडकर की किताब “एनहिलेशन ऑफ कास्ट” में पढ़ सकते हैं।
बता दें कि पेशवा के शासन में दलितों पर कई अमानवीय नियम थोपे गए थे। इस दौर में सार्वजनिक जगहों पर चलते समय दलितों को गले में हांडी लटकाकर चलना पड़ता था। उनके लिए ये नियम बनाए गए थे कि वे कहीं खुले में थूक नहीं सकते हैं और अगर उन्हे थूकना है तो वे अपने गले में लटकती हांडी में थूकें।
सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय से भी कमोवेश वैसी ही हालात बनेंगे क्योंकि एससी-एसटी में जो लोग थोड़े सक्षम हैं। वे कमजोर लोगों के साथ खड़े नहीं हो सकेंगे और मनुवादी ताकतें कमजोर लोगों पर पेशवाई राज चलायेंगे। साथ ही सरकारी नौकरियों में न्यूनतम अर्हताएँ लागू कर कमजोर वर्गों से उनके अवसर छीन लेंगे।
आज भी अधिकांश नौकरियों में एनएफएस (NFS) किया जा रहा है। क्या सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट ने कभी कोई संज्ञान लिया ? जैसे कि ईडब्ल्यूएस आरक्षण पर लिया था जिसमें बिना किसी डेटा के आरक्षण को वैध ठहरा दिया गया है।
अब सुप्रीम कोर्ट के दिए इस निर्णय के बाद राज्य सरकारें SC/ST/OBC के आरक्षण की राजनीतिक लाभ के लिए धज्जियाँ उड़ायेंगे। मतलब साफ है सुप्रीम कोर्ट के संविधान की मूल भावना के खिलाफ दिए इस निर्णय से आरक्षण के खात्मे की शुरुआत है।
सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के बाद राज्य सरकारें अपने राजनीतिक लाभ के लिए इस निर्णय का पूरी तरह दुरुपयोग करेंगी। मुझे लगता है इसकी शुरुआत आने वाले दिनों में उत्तर प्रदेश से होने वाली है। जहां OBC के आरक्षण में categorisation होना तय है। यहां से शुरुआत होगी फिर देश भर मे कई राज्य सरकारों के द्वार खुल जायेंगे।
उसके बाद एक एक करके राज्य सरकारें राजनीतिक लाभ के लिए SC/ST/OBC के आरक्षण में Categorisation करने लगेंगे। तब सुप्रीम कोर्ट को भी समझ आयेगा कि बहुत गलत निर्णय हो गया है। वंचितों का आरक्षण तो संविधान में सामाजिक भेदभाव के कारण दिया गया था..ना कि शैक्षिक और गरीबी से पिछड़ेपन के कारण…फिर ये कैसा निर्णय दिया है, समझ से बिल्कुल परे हैं।
इस निर्णय के लिए कई ताकतें कई वर्षों से प्रयास कर रही थी लेकिन सफल अब हुए हैं। सबको पता है कि वो कौनसी ताकतें हैं जो यह निर्णय पूरी शिद्दत से चाहती थी। सच कहूँ तो इस निर्णय के बाद संविधान में वंचितों के लिए कुछ नहीं बचा है।
जब संविधान में आरक्षण की मूल भावना ही खत्म हो जाए तो वंचितों के लिए आरक्षण खत्म ही मानिये। वंचितों को तो हर कोई अपने मौकों के हिसाब से मारना ही चाहता है आज तो वंचितों का संविधानिक खात्मा ही कर डाला है।
यह फैसला भारत के प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सात सदस्यीय संविधान पीठ ने सुनाया है। इसके जरिए 2004 में ईवी चिन्नैया मामले में दिए गए पांच जजों के फैसले को पलट दिया। बता दें कि 2004 के निर्णय में कहा गया था कि एससी/एसटी में उप-वर्गीकरण नहीं किया जा सकता है।
2004 में ईवी चिन्नैया मामले के प्रमुख बिंदु:
पाँच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने अनुसूचित जाति वर्ग में सभी अनुसूचित जातियों का समान प्रतिनिधित्त्व सुनिश्चित करने के लिये कुछ को अधिमान्य उपचार देने के पक्ष का समर्थन किया है।
वर्ष 2005 ‘ई. वी. चिनैय्या बनाम आंध्र प्रदेश राज्य और अन्य (E V Chinnaiah v State of Andhra Pradesh and Others) मामले में पाँच न्यायाधीशों की एक पीठ ने निर्णय दिया था कि राज्य सरकारों के पास आरक्षण के उद्देश्य से अनुसूचित जातियों की उप-श्रेणियाँ बनाने की कोई शक्ति नहीं है।
कोर्ट ने उप-वर्गीकरण को समानता के अधिकार का उल्लंघन माना। तर्क दिया कि संविधान कुछ जातियों को एक अनुसूची में वर्गीकृत करता है जिनसे अतीत में छूआ-छूत के कारण भेदभाव हुआ। इसलिए इस समूह में एक-दूसरे से अलग व्यवहार नहीं किया जा सकता।
कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 341 का भी हवाला दिया…जो आरक्षण के उद्देश्य से एससी समुदायों को सूचीबद्ध करने का अधिकार सिर्फ राष्ट्रपति को देता है। पीठ ने इसी आधार पर व्यवस्था दी थी कि इस सूची में किसी तरह के हस्तक्षेप या बदलाव करने का राज्यों को कोई अधिकार नहीं है।
यह भी पढ़ें : कोटे में कोटा के वोट हासिल करने के लिए, राजनीतिक पार्टियाँ एससी एसटी में वैमनस्यता बढ़ायेंगी
प्रधान न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ के नेतृत्व वाली सात-सदस्यीय संविधान पीठ ने 6:1 के बहुमत के फैसले के जरिये ‘‘ई वी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश सरकार’’ मामले में शीर्ष अदालत की पांच-सदस्यीय पीठ के 2004 के फैसले को खारिज कर दिया। फैसले में कहा गया था कि अनुसूचित जातियों (एससी) के किसी उप-वर्गीकरण की अनुमति नहीं दी जा सकती, क्योंकि वे अपने आप में स्वजातीय समूह हैं।
वस्तुत: इस सारे षड्यंत्र की शुरुआत 2020 से हुई जब जस्टिस अरुण मिश्रा बैंच ने कहा कि चूंकि समान शक्ति (इस मामले में पाँच न्यायाधीश) की एक पीठ पिछले निर्णय को रद्द नहीं कर सकती, अत: मामले में निर्णय लेने के लिये इसे एक बड़ी संवैधानिक पीठ को भेजा गया है।
भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा स्थापित की गई बड़ी खंडपीठ दोनों निर्णयों (अनुसूचित जातियों की उप-श्रेणियाँ बनाने तथा इस संबंध में राज्यों को अधिकार) पर पुनर्विचार करेगी।
भारत के मुख्य न्यायाधीश डॉ. डी वाई चंद्रचूड़ से एससी एसटी उप वर्गीकरण पर कुछ सवाल:-
1. सुप्रीम कोर्ट में अनुसूचित जाति (SC) वर्ग में उप-वर्गीकरण के लिए याचिका डाली गई थी, तो फिर अनुसूचित जनजाति (ST) में उप-वर्गीकरण का फैसला किस आधार पर दिया गया है?
2. अनुसूचित जनजाति (ST) में आर्थिक और सामाजिक रूप से अत्यंत पिछड़ी जनजातियों के लिए उप-वर्गीकरण, जैसा कि अत्यंत कमजोर जनजातीय समूह (PVGT) विकास और कल्याण के लिए पहले से लागू है, जिसमें 750 में से लगभग 75 जनजातियां शामिल हैं। फिर नए उप-वर्गीकरण का क्या औचित्य है?
3. उप-वर्गीकरण के माध्यम से अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) समुदायों के भीतर विभाजन पैदा करना इस उद्देश्य के विपरीत है। यह न केवल संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 का उल्लंघन करता है, बल्कि समाज में समानता और न्याय की भावना को भी कमजोर करता है। क्या आप संविधान पर हमला नहीं कर रहे हैं?
4. संविधान का अनुच्छेद 341 अनुसूचित जातियों (SC) की सूचियों और अनुच्छेद 342 अनुसूचित जनजातियों (ST) की सूचियों से संबंधित है। इन सूचियों को केवल राष्ट्रपति द्वारा अधिसूचित किया जाता है और इसमें राज्यों को हस्तक्षेप की अनुमति नहीं है। आप राष्ट्रपति की शक्तियों का अप्रत्यक्ष रूप से इस्तेमाल क्यों कर रहे हैं?
5. एससी एसटी के लोगों के आर्थिक रूप से संपन्न हो जाने के बावजूद उनके जातीय उत्पीड़न को नहीं रोका जा सका है जिसमें सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट्स की महत्ती भूमिकाओं से इंकार नहीं किया जा सकता है। एपेक्स कोर्ट इन वर्गों के लोगों को न्याय मुहैया करवाने में आज भी कन्नी काट रहे हैं।
6. आरक्षण गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है, बल्कि यह सामाजिक न्याय और समानता स्थापित करने के लिए एक महत्वपूर्ण साधन है। फिर आपके द्वारा उप-वर्गीकरण आर्थिक स्थिति को आधार बनाकर किया जाना गलत नहीं है?
क्रीमी लेयर की अवधारणा:
- सर्वोच्च न्यायालय का मानना है कि आरक्षण का लाभ ‘सबसे कमज़ोर लोगों को’ (Weakest of the Weak) प्रदान किया जाना चाहिये।
- वर्ष 2018 में ‘जरनैल सिंह बनाम लक्ष्मी नारायण गुप्ता मामले‘ में अनुसूचित जनजातियों के भीतर एक ‘क्रीमी लेयर’ की अवधारणा के निर्णय को कायम रखा गया।
- इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपने ही 12 वर्ष पुराने ‘एम. नागराज बनाम भारत’ सरकार मामले में दिये गए पूर्ववर्ती निर्णय पर सहमति व्यक्त की गई थी।
- एम. नागराज मामले में सर्वोच्च न्यायालय का मानना था कि अनुसूचित जाति और जनजाति (SC/ST) को मिलने वाला लाभ समाज के सभी वर्गों को मिल सके इसके लिये आरक्षण में क्रीमी लेयर की अवधारणा का प्रयोग करना आवश्यक है।
- वर्ष 2018 में पहली बार अनुसूचित जातियों की पदोन्नति में क्रीमी लेयर’ की अवधारणा को लागू किया गया था।
- केंद्र सरकार ने वर्ष 2018 के जरनैल सिंह मामले में निर्णय की समीक्षा की मांग की है और मामला वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय में लंबित है।
उप-वर्गीकरण के विपक्ष में तर्क: अनुसूचित जातियाँ एक वर्ग
- 1976 के ‘केरल राज्य बनाम एन. एम. थॉमस मामले’ में सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्धारित किया कि ‘अनुसूचित जातियाँ (SC) कोई जाति नहीं हैं, अपितु वे वर्ग हैं।
- इस मामले में यह तर्क दिया गया कि ‘सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन’ की शर्त को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति पर लागू नहीं किया जा सकता है।
- अस्पृश्यता के कारण सभी अनुसूचित जातियों को विशेष उपचार दिया जाना चाहिये।
उप-वर्गीकरण के विपक्ष में तर्क: वोट बैंक की राजनीति संभव
- आरक्षण के उप-वर्गीकरण में सरकार द्वारा लिये जाने वाले निर्णय वोट बैंक की राजनीति के आधार पर हो सकते हैं।
- इस तरह के संभावित मनमाने बदलाव से बचने के लिये अनुच्छेद- 341 में राष्ट्रपति की सूची की परिकल्पना की गई थी।