मूकनायक मीडिया ब्यूरो | 14 जुलाई 2024 | जयपुर : मूर्धन्य आदिवासी लेखक हरिराम मीणा द्वारा लिखित ‘मीणा शौर्य गाथाएँ’ पुस्तक ‘मीणाओं के गौरवशाली अतीत का स्मारक’ है जो हाल ही में प्रकाशित हुई है। हरिराम जी आदिवासी समुदाय पर अधिकृत लेखक है। फ़ादर हेनरी हेरास सहित एक दर्जन से अधिक प्राचीन इतिहासकारों और पुरातत्ववेत्ताओं ने मीणाओं को सिंधु सभ्यता के मौलिक वारिस माना है, जिसे यह पुस्तक पूर्णत: प्रमाणित करती है।
मीणा शौर्य गाथाएँ पुस्तक ‘मीणाओं के गौरवशाली अतीत का प्रामाणिक स्मारक’
कृति की महत्ता इतनी है कि प्रथम पंक्ति पढ़ी तो अद्योपांत पढ़ना मेरी ही नहीं अपितु हर पाठक की मजबूरी है। यह है हरिराम मीणा कि लेखनी की ताकत । यह केवल मीणा जाति का इतिहास न होकर आपने समसामयिक इतिहास बना दिया है। वाह,सर आपकी कलम को नमन! तथ्यों की प्रमाणिकता के रूप में इतिहास पर लिखना भौतिक विज्ञान से अधिक चुनौतिपूर्ण होता हैं। यह और भी चुनौतिपूर्ण परीक्षण बन जाता हैं जब इससे पूर्व प्रमाणिक पुस्तकें श्रोत कम उपलब्ध हो।
प्राचीन काल से मीणा समाज का न केवल राजस्थान बल्कि भारत वर्ष में बहुत ही गौरवशाली इतिहास रहा है देश के विभिन्न हिस्सों मीणा समाज कई जातियों में बटा हुआ है लेकिन यह कैसी विडंबना है कि राजस्थान की पाठ्य पुस्तकों में भी हमारे गौरवशाली इतिहास को समुचित स्थान प्राप्त नही है। बल्कि हर्कुलिश (अपारशक्ति के वीर पुरुष जिन्होंने अनेकानेक महान कार्य किये) मीणा समाज की नकारात्मक छवि प्रस्तुत की गयी है।
राजस्थान में जनसँख्या की दृष्टि से सर्वाधिक आबादी पर मीणा समुदाय की है। इनकी बसावट अरावली पर्वत शृंखला में ठेठ जिला भरतपुर से लेकर अलवर, दौसा, करौली, सवाईमाधोपुर, टोंक, बारां, झालावाड़, कोटा, बूंदी, भीलवाड़ा, चित्तौडगढ़, प्रतापगढ़, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, उदयपुर, पाली, जालोर, सिरोही, जोधपुर एवं शेखावाटी के सभी जिलों सहित जयपुर तक पसरी हुई है। प्राचीन बस्तियां खासकर पर्वत घाटियों एवं तलहटियों में थीं।
कालांतर में कुछ गाँव समतलीय क्षेत्रों तक में फैलते गए। मूलत: राजस्थान से ताल्लुक रखने के बावजूद अन्य प्रान्तों में भी मीणा लोग पाए जाते हैं जिनके यहाँ से विस्थापन, पलायन का अनेक सोपानों में लंबा इतिहास है। आरक्षण की दृष्टि से केवल राजस्थान के मीणा संविधान की सूची में सम्मिलित हैं।
मध्यप्रदेश के विदिशा जिला की सिरोंज तहसील के मीणा लोगों को अनुसूचित जनजाति में लिया गया है। अन्य करीब 23 जिलों में ये अन्य पिछड़ा वर्ग की श्रेणी में हैं। उत्तरप्रदेश के मथुरा, संभल व बदायूं जिलों में मीणा हैं। सभी स्थानों को मिलकर मीणा समुदाय की जनसँख्या करीब 50 लाख है, जिनमें से 40 लाख राजस्थान में है।
राजस्थान व हरियाणा के मेवात अंचल में रहने वाले मेव मुसलमानों का अधिकांश मीणों से ही धर्मान्तरित हुआ है। अजमेर अंचल के मेर व रावत भी असल में मीणा ही हैं। मीणा लोगों के भौगोलिक विस्तार का गहरा संबंध उनके विस्थापन व पलायन से है। ज्ञात प्राचीनता की दृष्टि से वर्तमान अफगानिस्तान व पाकिस्तान और भारत के पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तरप्रदेश, राजस्थान व गुजरात तक यह जनजाति फैली हुई थी।
इस सारे भूभाग में सिंधु सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं। उस सभ्यता के विनाश के पश्चात् इस जनजाति बचे हुए लोगों का पहला और बड़े पैमाने पर पलायन हुआ। नदी-घाटी सभ्यता की जीवनशैली के अभ्यस्त ये लोग अपने उस मूल अंचल से विस्थापित होकर अरावली पर्वत-शृंखलाओं की शरण में आये, जहाँ मुख्य रूप से ढूंढ, बाणगंगा, पार्वती, गंभीरी, कालीसिंध, मोरेल, चम्बल, बनास, माही, सोम, जाखम नदियाँ बहती हैं।
यह वर्तमान राजस्थान का मीणा बाहुल्य इलाका है जिसमें जयपुर सहित पूर्वी राजस्थान के अलवर, भरतपुर, दौसा, धोलपुर, करौली, सवाई माधोपुर, टोंक जिला, हाड़ौती अंचल के कोटा, झालावाड़, बारां, बूंदी, आगे चलकर भीलवाड़ा, प्रतापगढ़, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, उदयपुर, सिरोही, पाली और फिर अजमेर होते हुए शेखावाटी का अंचल शामिल है। इस सम्पूर्ण क्षेत्र में अरावली पर्वत-माला और उससे उद्गमित नदियाँ फैली हुई हैं।
भारत में महाजनपद काल में मीणा जनजाति का पुन: संगठित उत्थान होकर पूर्वी राजस्थान के बड़े हिस्सा को समेटता हुआ मत्स्य गणराज्य स्थापित होता है। मौर्य एवं गुप्त वंशीय साम्राज्यों के अवतरण के साथ मत्स्य महाजनपद विखंडित हो जाता है। इसी कालखंड में यवनों के आक्रमण हुए। सिकंदर महान की मृत्यु के पश्चात् उसके सेनापति सेल्यूकस निकेटर ने उत्तर भारत के अधिकांश भागों पर अधिकार कर लिया।
यूनानियों के आक्रमणों से भयभीत होकर योद्धेय, शिवि, अर्जुनायन व मालव जातियों ने राजस्थान में शरण लेना आरंभ कर दिया। इसी दौर में हूणों के आक्रमण हुए. भारत पर एकछत्र साम्राज्यों का युग समाप्त हो गया। इस राजनैतिक वातावरण में संभवत: मीणा समुदाय के स्थानीय मुखियाओं के नेतृत्व में लघु शासन प्रणालियों का दौर आता है। उदाहरणार्थ आज के जयपुर जिला में पृथक पृथक मीणा राज्य थे।
अलवर क्षेत्र में अन्गारी, क्यारा व नरेठ जैसे छोटे राज्य थे। बूंदी गजेटियर, कर्नल टॉड और जयपुर-अलवर के इतिहास ग्रंथों से प्राप्त जानकारी के मुताबिक मत्स्य जनपद के पतन के पश्चात् इस सम्पूर्ण क्षेत्र में बाहरी आक्रांताओं के तांडव और राजनैतिक उथल-पुथल के बावज़ूद यत्र-तत्र मीणा समुदाय की शासन व्यवस्थाएं अस्तित्व में रही थीं। तत्कालीन मीणा राज्यों में रणथंभोर व बूंदी का भौगोलिक क्षेत्रफल ज़रूर बड़ा था। यह राजनैतिक परिदृश्य विशेषकर ग्यारहवीं-बारहवीं सदियों तक चलता है।
इस समुदाय के प्रमुख राज्यों में खोहगंग का चांदा राजवंश, मांच का सीहरा राजवंश, गैटोर तथा झोटवाड़ा के नाढला राजवंश, आमेर का सूसावत राजवंश, नायला का राव बखो देवड़वाल राजवंश, नहाण (लवाण) का गोमलाडू राजवंश, रणथम्भौर का टाटू राजवंश, बूंदी का ऊसारा राजवंश, माथासुला ओर नरेठ (नहड़ा, थानागाज़ी-प्रतापगढ़) का ब्याड्वाल राजवंश, झांकड़ी-अंगारी (थानागाजी) का सौगन मीना राजवंश थे। इनके दुर्ग, परकोटा, महल, बावड़ी आदि के ऐतिहासिक अवशेष यहाँ वहाँ आज भी मिलते हैं।
ग्यारहवीं-बारहवीं सदियों में बाहर से आये हुए राजपूतों ने मीणा राजाओं को एक के बाद एक विजित किया। जयपुर अंचल के कच्छवाहा राजाओं के साथ हुए संधि-समझौतों के बाद मीणा मुखिया एवं सरदार आमेर और बाद में जयपुर रियासत में हिस्सेदारी निभाते हैं। उन्हें नगर एवं राजकोष की सुरक्षा का दायित्व सौंपा जाता है। जब मुगलों ने दक्षिण विजय का अभियान चला तो जयपुर के राजा के साथ गयी सेना में बड़ी संख्या मीणा लड़ाकुओं की थी। उनके वंशज आज भी महाराष्ट्र के कई इलाकों में ‘परदेसी राजपूतों’ के नाम से जाने जाते हैं।
यह मीणा लोगों का एक किस्म का इच्छित विस्थापन था। इसके बाद अकाल, भुखमरी, महामारी का दौर आया जब रोजी-रोटी की तलाश में मीणों का राजस्थान से उत्तरप्रदेश, दिल्ली, मध्यप्रदेश की तरफ भारी तादात में पलायन हुआ। सन 1783 अर्थात सम्वत 1840 के अकाल को चालीसा का अकाल कहते हैं। सन 1812-13 और 1868-69 में भी अकाल पड़ा। सबसे भीषण दुर्भिक्ष छप्पन्या के नाम से जाना जाता है जो सम्वत 1956 में आरंभ हुआ और तीन साल अर्थात सन 1899 से लेकर 1902 तक जिसने भयंकर तबाही मचाये रखी।
यूँ तो महामारियों का दौर यदा-कदा आता ही रहा है किंतु वर्ष 1915-26 की ग्यारह साला अवधि में महामारियों का विकट प्रकोप रहा। जब लोगों का पलायन अन्य इलाकों में हुआ। विस्थापन-पलायन की इस सम्पूर्ण प्रक्रिया के फलस्वरूप जो भौगोलिक विस्तार हुआ। उसे आज दिल्ली हित उत्तरप्रदेश के मेरठ-बुलंदशहर, मध्यप्रदेश के इंदोर-उज्जैन, महाराष्ट्र के औरंगाबाद जैसे इलाकों में मीणा जनजाति के लोगों की बड़ी संख्या देखी जा सकती है। ऐसी जनजाति के गौरवशाली अतीत को हमारे इतिहासकारों ने नज़रंदाज़ किया है। लोक में इस आदिम समुदाय की शौर्य गाथाएँ आज भी प्रचलित हैं।
मीणा इतिहास की पहली पुस्तक झूँथालाल नांढला के प्रयासों से रावत सारस्वत द्वारा रचित सन 1968 में प्रकाशित हुई। रावत सारस्वत के मतानुसार ‘जहाँ जहाँ विभिन्न नामधारी मीणा वंशों के लोग बसे हुए हैं वहाँ वहाँ उन्होंने अपनी स्वतंत्रता को बनाये रखने के लिए निरंतर संघर्ष किया है। शिवाजी और प्रताप द्वारा अपनाए गए पहाड़ी युद्धों के तौर तरीकों के जन्मदाता, प्राचीन मत्स्यों के यशस्वी उत्तराधिकारी मीणों के गौरवपूर्ण आख्यानों को यदि भारतीय इतिहासकार संभल कर रखन एक प्रयत्न करते तो देश के इतिहास की श्रीवृद्धि होतो, इसमें संदेह नहीं है।
जिन मुसलमान आक्रमणकारियों और बादशाहों के सामने राजस्थान और अन्यान्य प्रदेशों के राव-राजा घुटने टेकते गए उन्हीं विजय के मद में दुर्दांत बने यवन शासकों को मीणों ने एक दो बार नहीं, सैकड़ों बार और शताब्दियों तक नाकों चने चबाये हैं। ऐसी बहादुर कौम को, जिनकी संघ-शक्ति की दुंदभी कभी समूचे देश में गूँजती थी। किस प्रकार राज्य प्रणाली के हिमायतियों ने धीरे धीरे नाचीज़ बना दिया। यह सारी कथा बड़े दर्द से भरी हुई है और जिसे जानने के लिए साधारण पाठक के सामने कोई क्रमबद्ध वर्णन प्रस्तुत नहीं हो पाया है।’
इस पुस्तक में मीणा आदिम समुदाय के गौरव की इन्हीं गाथाओं को प्रस्तुत करने का विनम्र प्रयास किया गया है।