मूकनायक मीडिया ब्यूरो | 06 अगस्त 2025 | दिल्ली – जयपुर : आँकड़े बताते हैं कि दुनिया की कम से कम 50% ज़मीन पर आदिवासी लोग पारंपरिक रूप से कब्ज़ा जमाए हुए हैं और पर्यावरण के प्रति बेहद सावधानी और सम्मान के साथ इसका इस्तेमाल करते हैं, फिर भी इनमें से केवल 11% ज़मीन को ही कानूनी तौर पर आदिवासी ज़मीन के रूप में मान्यता प्राप्त है।
‘आदिवासी हिंदू नहीं बल्कि प्रकृति पूजक हैं’ ब्राहमण है हिंदू धर्म के असली लाभार्थी
आदिवासी लोगों के पैतृक अधिकार की इस घोर उपेक्षा ने हमारे ग्रह की अंतिम सीमाओं के और अधिक क्षरण, जैव विविधता के विनाश और अनगिनत आदिवासी लोगों के विस्थापन को जन्म दिया है। यह न केवल आदिवासी लोगों के लिए, बल्कि पूरी मानव जाति के लिए एक तत्काल चिंता का विषय है क्योंकि भूमि अधिकारों पर यह हमला हमारे ग्रह को तेज़ी से पतन की ओर ले जा रहा है। इसके अलावा, पैतृक ज़मीनों की व्यापक चोरी आदिवासी लोगों की संस्कृति और पहचान के लिए ख़तरा है।
आदिवासी मामलों के मूर्धन्य विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर राम लखन मीणा कहते हैं कि “आदिवासी कभी भी हिंदू नहीं थे, न हैं। हमारा सब कुछ अलग है। हमारा खान-पान, रहन-सहन, रीति-रिवाज, ओढ़ना-पहनना, अस्मिता-स्वाभाव, अपनी विशिष्ट भाषाएं, संस्कृति, परंपराएं और धार्मिक विश्वास हैं, सबके सब अलग हैं। इसी वजह से हम आदिवासियों में गिने जाते हैं। हम प्रकृति पूजक हैं। तथाकथित हिंदुओं की तरह मूर्ति-पूजक कदापि नहीं क्योंकि धरती पर धर्म, भगवान और लोकतंत्र से पहले आदिवासी था। सबसे बड़ा सवाल यह है कि आदिवासियों का धोखा से सामूहिक हिंदूकरण किया गया था? मैं तर्क दूँगा कि यह मुख्यतः आधुनिक समाजों में हुए गहरे संरचनात्मक परिवर्तनों के कारण है, जिन्होंने विभिन्न सामाजिक वर्गों और उनके राजनीतिक हितों का पुनर्गठन किया है।’’
भारत का संविधान राज्य और समाज को आदिवासी परंपराओं के संरक्षण का ज़िम्मा देता है, जो भारत के इतिहास में एक अनोखी हैसियत रखते हैं। लेकिन हिंदू वर्ण-व्यवस्था के सवर्ण पैरोकार, वोट की कुत्सित राजनीति और सांप्रदायिक आग की ज्वाला में उन्हें झोंकने के मंशुबों के चलते 1951 की जनगणना के बाद से ही आदिवासियों को हिंदू बनाने पर तुले हैं। जब कोई भारत की राष्ट्रीय पहचान को हिंदू अतीत के साथ जुड़ी हुई घोषित करता है, तो वो आदिवासी लोगों की स्वतंत्र, स्वायत्त और उनकी ब्राह्मण-विरोधी विरासत के शानदार इतिहास को नज़रअंदाज़ करता है।
एनिमिस्ट से आशय ऐसी आदिवासी जनजातियों से था, जो उस समय तक हिंदू धर्म के प्रभाव में नहीं आईं थीं। हिंदू हर वो आदमी है जो ‘यूरोपियन, आर्मेनियन, मुगल, पर्शियन या विदेशी वंश का नहीं है, जो किसी मान्यता प्राप्त जाति का सदस्य है, जो ब्राह्मणों (पुरोहित जाति) के आध्यात्मिक अधिकार को मानता हो। भारत एक बेहद जटिल देश है। हर क्षेत्र, जाति, पंथ, धर्म का अपना इतिहास है और वो अपने आप में एक राष्ट्र हैं। हम अंग्रेज़ों द्वारा दी गई पहचान के बहाने से उनका जुड़ना सहन नहीं कर सकते। आदिवासियों को हिंदू के शिकंजे से बचाना, अन्य बहुत से नायक-नायिकाओं के साथ-साथ ही बिरसा मुंडा, सिद्धो-कान्हु, जयपाल सिंह मुंडा इत्यादिक का एक बड़ा सपना है।
आदिवासियों के लिए ईसाई मिशनरीज और आरएसएस के अनुषांगिक संगठन एक जैसे हैं! वामपंथियों ने आदिवासियों की राष्ट्र की मुख्य धारा में लेन के बजाय नक्सलवाद की तरफ धकेला। वहीं ब्राह्मणों ने आरएसएस जैसे संगठनों और उनके द्वारा पाले सत्ता के लालचियों के ज़रिए, आदिवासियों का धर्म बदलवाकर उन्हें हिंदू बनाना शुरू किया है। ये उससे बहुत अलग नहीं है, जो ईसाई मिशनरीज करते हैं। भारत की जनगणना 2001, में धर्म पर रिपोर्ट में कहा गया है, भारत ‘स्वदेशी आस्थाओं और आदिवासी धर्मों का आवास है, जो सदियों तक प्रमुख धर्मों के प्रभाव से बचे रहे हैं और मज़बूती से अपनी जगह डटे हुए हैं।
भारत की जनगणना, दमनकारी बहुमत की सरपरस्ती का सहारा लिए बिना अपने आपको स्थापित करने का सबसे अच्छा तरीका है। दलितों, अदिवासियों और बहुत से पिछड़े वर्गों को मजबूर करके हिंदू धर्म में लपेटने से सवर्णों को एक लोकतांत्रिक और निर्वाचित बहुमत मिल जाता है। अब आदिवासियों की धार्मिक आज़ादी का समय आ चुका है, आदिवासियों और दलितों को जनगणना में एक अलग कॉलम की अनुमति होनी चाहिए। ये भारत की आज़ादी की लड़ाई और कुल मिलाकर राष्ट्र में उनके योगदान के प्रति वास्तविक सम्मान होगा।
इसीलिए झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कहा था, “आदिवासी कभी हिंदू नहीं थे, न ही हैं। इसमें कोई भ्रम नहीं है। हमारा सब कुछ अलग है। हम प्रकृति की पूजा करते हैं।“ इस मसले को समझने के लिए जनगणना भी एक अहम कड़ी है। भारत में ब्रिटिश हुकूमत के समय 1871 में हुई प्रथम जनगणना से ही धार्मिक समूहों का पृथक्करण किया गया, जिसमें “एबोर्जिनल” के रूप में आदिवासियों को अलग पहचान दी गई थी, जो 1941 तक जारी था।
अंग्रेजों ने आदिवासियों के धर्म को अलग मान्यता दी, लेकिन आजादी के बाद आदिवासियों के साथ बेईमानी की गई। 1951 में हुई प्रथम जनगणना में आदिवासी कॉलम को हिंदू कॉलम में समाहित किया गया। हिंदू धर्म से संबंधित प्रमुख कानूनों में आदिवासियों को हिंदू नहीं माना गया है, इसलिए ये कानून उनपर लागू नहीं होते हैं, जबकि बौद्ध, जैन, सिख, प्रार्थना समाज एवं आर्य समाज के सदस्यों पर लागू हैं।
हिंदू विवाह अधिनियम 1955, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956, और हिंदू दत्तक ग्रहण और रखरखाव अधिनियम 1956 की धारा 2 (2) और हिंदू वयस्कता और संरक्षकता अधिनियम 1956 की धारा 3 (2) अनुसूचित जनजातियों पर लागू नहीं होती है। मतलब इसका अर्थ यह हुआ कि बहुविवाह, विवाह, तलाक, गोद लेना, भरण-पोषण, उत्तराधिकार जैसे सभी प्रावधान अनुसूचित जनजाति के लोगों पर लागू नहीं होते हैं।
इसका एक कारण यह भी है कि विवाह, तलाक और उत्तराधिकार को लेकर सैकड़ों जनजातियों और उप-जनजातियों के अपने-अपने रीति-रिवाज और परंपराएं हैं। 2001 में सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में फैसला सुनाया कि अनुसूचित जनजाति के लोग हिंदू धर्म का पालन करते हैं, लेकिन वे हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 2 (2) के दायरे से बाहर हैं। इसलिए उन्हें आईपीसी की धारा 494 (बहुविवाह) के तहत दोषी नहीं ठहराया जा सकता। इसके तहत 2005 में एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अनुसूचित जनजाति के लोग अपने समुदाय के रीति-रिवाजों के अनुसार शादी कर सकते हैं।
हमें कानूनी प्रावधानों पर भी गौर करना चाहिए। हिंदू मैरिज एक्ट 1955 की धारा-2;2, हिंदू सक्सेशन एक्ट 1955 की धारा-2;2, हिंदू माईनोरिटी एंड गार्डियनशिप एक्ट 1955 की धारा-3;2 एवं हिंदू एडोप्शन एंड मेंटेनेन्स एक्ट 1956 की धारा-2;2 में स्पष्ट लिखा हुआ है कि इन कानूनों का कोई भी हिस्सा संविधान के अनुच्छेद 366;25 के तहत परिभाषित अनुसूचित जनजातियों पर लागू नहीं होगा।
इन कानूनों के आधार पर सुप्रीम कोर्ट एवं हाई कोर्ट ने आदिवासियों को हिंदू मानने से इंकार किया है। सुप्रीम कोर्ट ने डॉ। सूर्यामनी स्टेला कुजूर बनाम दुर्गा चरण हांसदा एवं अन्य ए.आई.आर. 2001 एस.सी. 939 एवं झारखंड उच्च न्यायालय ने राजेन्द्र कुमार सिंह मुंडा बनाम ममता देवी एफ.ए. 186 ऑफ 2008 के मामले में फैसला देते समय आदिवासियों को हिंदू मानने से इंकार कर दिया था।
आरएसएस आदिवासियों को आदिवासी तक मानने को तैयार नहीं है और चीख-चीख कर हमेशा अपमानजनक रूप से उन्हें हेय मानते हुए वनवासी कहता है। इसमें मूल बात यह है कि तथाकथित हिंदू धर्म के धर्मग्रन्थों में आदिवासियों को असुर, दानव, राक्षस, शैतान, वानर इत्यादि कहा गया है यानी वे इंसान के रूप में वहाँ मौजूद ही नहीं हैं, फिर वे जन्मजात हिंदू कैसे हो सकते हैं?
“आदिवासी” न धार्मिक समूह है और न ही यह “वर्ण एवं जाति” व्यवस्था का हिस्सा है, बल्कि यह एक अलग नस्लीय समुदाय है। इससे स्पष्ट है कि आदिवासी जन्मजात हिंदू नहीं हैं, बल्कि वोट बैंक की राजनीति के चलते बड़े पैमाने पर साजिशन उनका हिंदूकरण हुआ है जो अब भी जारी है। आरएसएस की शाखाओं में ट्रेंड कुछ संकीर्ण मानसिकताओं के लोग आरएसएस में उनके आकाओं को खुश करने के लिए षड्यंत्रों से वशीभूत होकर गलत बयानी करते रहते हैं।
इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि यूरोपीय विद्वानों को “आर्यों” ने अपनी ओर मोहित कर लिया था। जो यूरेशिया के घास के इलाकों से लूटपाट कि उनकी नैसर्गिक प्रवृत्तियों के कारण उन्हें वहाँ से खदेड़े जाने के बाद उपमहाद्वीप में आ बसे थे। उनका स्वभाव संगीन आपराधिक-प्रवृत्तियों वाला था। वे वही बोली बोलते थे जो उनकी यूरोपियन भाषाओँ के करीब थी। जर्मन, फ्रेंच एवम् इंग्लिश और संस्कृत की शब्द-संपदा की नजदीकियाँ इसका पुख्ता और सटीक प्रमाण है।
मैं इस बात की ओर इशारा करने की हिम्मत करता हूँ कि अंग्रेज और भारतीयों का समान उद्भव है, जिसे इंडो-आर्यन कहा गया और इसकी जड़ें जर्मनी में हिटलर तक जाती है। यही नाजीवाद के साथ आरएसएस और एमएस गोलवलकर के अकाट्य संबंध का प्रमाण है।
एडोल्फ हिटलर से प्रेरणा लेते हुए वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड शीर्षक पुस्तक के लेखक एमएस गोलवलकर ने इस बात पर जोर दिया कि भारत हिंदुओं का देश है और यहाँ के दलित-आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के साथ वैसा ही व्यवहार किया जाना चाहिए जैसा नाजियों ने यहूदियों के साथ किया था। इस पुस्तक के संदर्भ में ही बात करें तो दलित-आदिवासियों और अल्पसंख्यक हिंदू नहीं है, फिर ये हिंदू है कौन आखिरकार जिनके साथ नाजियों जैसा व्यवहार करना चाहते हैं? इस पुस्तक ने असंदिग्ध रूप से आरएसएस को नाजी जर्मनी की फासिस्ट विचारधारा के साथ जोड़ दिया।
‘हिंदू’ शब्द पहली बार प्रयोग कब हुआ यह जानना जरूरी
1) “हिंदू” शब्द का प्रयोग पहली बार छठी शताब्दी ईसा पूर्व में पाया जाता है। जब हखामनी फारसियों ने इसका इस्तेमाल सिंधु नदी के आसपास के भौगोलिक इलाकों; जिसे उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिम में सिंधु के तौर पर जाना जाता है – के संदर्भ में किया था।
2) वेदों के रूप में संकलित साहित्य की रचना 1500 ईसा पूर्व से 500 ईसा पूर्व के बीच हुई थी, जो लोग खुद को “आर्य” कहते थे और यूरेशियन घास के मैदानी क्षेत्र से उपमहाद्वीप में आकर बस गए थे।
3) चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में, सिकंदर की सेना ने “सिंधु” के आसपास के क्षेत्र को इंडस नाम से संदर्भित किया, जहां से आधुनिक नाम “इंडिया” व्युत्पन्न हुआ है।
4) अरबी संस्करण “अल हिंद” भी, उसी भौगोलिक क्षेत्र का उल्लेख करता है और इस शब्द से ही “हिंदू” नाम उपयोग में आया।
5) इतिहासकार रिचर्ड ईटन ने लिखा है कि यह शब्द उपमहाद्वीप के एक हिस्से के लिए अस्पष्ट भौगोलिक धारणा के रूप में 1350 तक इस्तेमाल किया गया था।
6) रोमिला थापर के अनुसार, “हिंदू” का इस्तेमाल पंद्रहवीं शताब्दी से पहले किसी धर्म के नाम के तौर नहीं किया गया था। इस धर्म को नामित करने के लिए इस शब्द का सबसे पहला उपयोग अठारहवीं शताब्दी में ईस्ट इंडिया कंपनी के सिविल सेवकों और व्यापारियों द्वारा किया गया था।
7) इन सभी अलग-अलग उपयोगों से पता चलता है कि हिस्टोरियोग्राफी में “हिंदू” शब्द का उपयोग उन्नीसवीं शताब्दी से पहले किसी भी मापदंड के तहत नहीं किया गया था।
8) 8वीं शताब्दी में यूनानियों ने किया। तब इसका धर्म से कोई सरोकार नहीं था बल्कि एक गाली (हिकारत) के रूप इस्तेमाल किया गया।
9) हिंदुत्व शब्द का राजनीतिक रूप से 1892 में चंद्रनाथ बसु और धार्मिक इस्तेमाल 1923 में माफीवीर सावरकर ने किया। खैर, वर्ण व्यवस्था जैसी अमानवीय सोच रखने वाले हिंदू धर्म के इतिहास में बाबा रामदेव पहले उदाहरण है जो शुद्र से स्वघोषित ब्राह्मण बने हैं। हिंदू धर्म के लाभार्थी उन्हें ब्राह्मण मानेंगे या नहीं यह एक अलग विषय है।
बहराल, हिंदू धर्म का उपयोग उन शोषित जातियों की राजनीतिक आकांक्षा को दबाने और नियंत्रित करने के लिए किया गया है, जिन्हें 1951 में हुई प्रथम जनगणना में बिना कोई मशविरा किये हिंदू धार्मिक श्रेणी में जोड़ दिया गया था। शायद आपको याद हो कि बाबासाहब डॉ बीआर अंबेडकर जी ने 1956 में यूं ही नहीं कहा था कि उन्हें बहुजन समाज के पढ़े लिखे और साधन संपन्न लोगों ने निराश किया क्योंकि उन्होंने अपनी एक अलग क्लास बना ली थी/ है जो उन्हें उनके वर्ग से अलग कर लेती है। हाल ही में झारखंड के मुख्यमंत्री और झारखंड मुक्ति मोर्चा नेता हेमंत सोरेन ने इस बात को स्वीकार किया कि आदिवासी कभी भी हिंदू नहीं थे और न ही वो अब हैं। उन्होंने ये बात केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार से सारना कोड की मंज़ूरी लेने की कोशिश के जवाब में कही।
प्रमुख जाति सवर्ण हिंदुओं ने गलतफहमियों में मान लिया है कि आदिवासियों और दलितों की पहचान हिंदू है। इसका इस्तेमाल करके हिंदू बहुमत की एक झूठी धारणा बनाई जाती है और इस तरह भारत राष्ट्र को हिंदुओं की भूमि- हिंदुस्तान के तौर पर स्थापित किया जाता है। सोरेन के बयान के बाद पूरी हिंदू आम सहमति, खासकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) में परेशानी पैदा हो गई। वो अंदर तक हिल गये। सारना कोड आदिवासियों को एक अलग सम्मानजनक पहचान देता है, जो हिंदू पहचान से हटकर है, जिसे उनसे आमतौर से जोड़ लिया जाता है।
आदिवासी हिंदू क्यों नहीं हैं?
जब दुनिया में कोई धर्म भी पैदा नहीं हुआ था, तब से आदिवासियों ने दुनिया को इस धरती पर जीने का सलीका सिखाया, मानवता का पाठ पढ़ाया, प्रकृति के नियमों को समझाया, उनके पास कोई आसमानी किताबें नहीं थी। वह तो प्रकृति से सीख रहा था। उनकी सामाजिक पारंपरिक जीवन संरचना तो प्रकृति से जुड़ी हुई थी।
प्रकृति ही उनका गुरु थी। प्रकृति ही उनका देव थी। यही कारण है कि आदिवासी खुद को हिंदू नहीं मानते हैं। आज भी 75 प्रतिशत ऐसे आदिवासी हैं, जो कि हिंदू देवी-देवताओं को ना तो जानते हैं और ना मानते हैं। उनकी संस्कृति और सभ्यता हिंदू धर्म से भी पुरानी है।
उनके अपने तीज, त्योहार और परंपरा हैं। उनकी शादी, मरण, परण सारे सिस्टम हिंदू धर्म के पैदा होने के पहले से हैं। एक बड़ा तबका है जो खुद को हिंदू नहीं ‘सरना’ मानता है। सरना का अर्थ है प्रकृति की पूजा करने वाले लोग। झारखंड में सरना धर्म को मानने वालों की बड़ी संख्या है। ये लोग खुद को प्रकृति के पुजारी कहते हैं। वे किसी देवता या मूर्ति की पूजा नहीं करते हैं।
जो स्वयं को सरना धर्म का मानते हैं वे तीन प्रकार की पूजा करते हैं। पहले धर्मेश का अर्थ है पिता, दूसरा सरना का अर्थ है माता और तीसरी प्रकृति का अर्थ है वन। सरना धर्म के अनुयायी ‘सरहुल’ पर्व मनाते हैं। इसी दिन से उनका नया साल शुरू होता है। सरना धर्म के अनुयायी खुद को हिंदुओं से अलग बताते हैं।
पिछले साल फरवरी में एक सम्मेलन में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कहा था, “आदिवासी कभी हिंदू नहीं थे, न ही हैं। इसमें कोई भ्रम नहीं है। हमारा सब कुछ अलग है। हम प्रकृति की पूजा करते हैं। आदिवासी हिंदू इसलिए नहीं हैं क्योंकि हिंदुओं में जो वर्ण व्यवस्था है उसमें आदिवासी कहीं नहीं हैं। वे आगे कहते हैं कि हिंदुओं के लिए 1955 में हिंदू मैरिज एक्ट बना है, जो आदिवासियों पर लागू नहीं होता है।
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आदिवासी समूह आधुनिकीकरण के कारण हो रहे पारिस्थितिकी पतन के प्रति काफी संवेदनशील हैं। व्यवसायिक वानिकी और गहन कृषि दोनों ही उन जंगलों के लिए विनाशकारी साबित हुए हैं, जो कई शताब्दियों से आदिवासियों के जीवन-यापन का स्रोत रहे हैं। एक तरह से आदिवासियों को उनके जल, जमीन, जंगल व पहाड़ों से बेदखल करने की कोशिश का एक हिस्सा है उन्हें अन्य या हिंदू मानना। उन्हें हिंदू की श्रेणी में लाना, उनकी संख्या को नगण्य करके, उनकी अपनी रूढ़ी परंपरा से बेदखल करने के बाद उनके जल, जमीन, जंगल व पहाड़ों पर कॉरपोरेटी हमले की साजिश का हिस्सा है।
भारत में अनुसूचित आदिवासी समूहों की संख्या 700 से अधिक है। भारत में 1871 से लेकर 1941 तक हुई जनगणनाओं में आदिवासियों को अन्य धर्मों से अलग धर्म में गिना गया। जैसे 1871 में ऐबरजिनस (मूलनिवासी), 1881 और 1891 में ऐबरजिनल (आदिम जनजाति), 1901 और 1911 में एनिमिस्ट (जीववादी), 1921 में प्रिमिटिव (आदिम), 1931 व 1941 में ट्राइबल रिलिजन (जनजातीय धर्म) इत्यादि नामों से वर्णित किया गया।
वहीं आजाद भारत में 1951 की जनगणना के बाद से आदिवासियों को अलग से गिनना बंद कर दिया गया। आदिवासी लोग अपने पर्व-त्योहारों का पालन करते हैं, जो पूरी तरह प्रकृति आधारित है, जिसका किसी भी धर्म के साथ कोई सीधा संबंध नहीं है। वे अपने आदिवासी रीति-रिवाजों के अनुसार शादी-विवाह करते हैं। उनकी प्रथागत जनजातीय आस्था के अनुसार विवाह और उत्तराधिकार से जुड़े मामलों में सभी विशेषाधिकारों को बनाए रखने के लिए उनके जीवन का अपना तरीका है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 366 धारा 29 के अन्तर्गत आदिवासियों को अपनी रूढ़ियों व प्रथाओं के अधीन कुछ मान्यताएं विशेष दी गई हैं। सन 2011 की जनगणना में 96 प्रतिशत आदिवासियों ने अपने आपको धर्म के कॉलम में हिंदू दर्ज करवाया है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 366 (25) की भाषा- परिभाषा के अर्थों में अनुसूचित जनजाति के सदस्य/नागरिक ‘हिंदू’ माने जाते हैं।
हिंदुओं की जनसंख्या गिनने-गिनाने और वोट की राजनीति के लिए भी ‘हिंदू’ माने-समझे जाते हैं। लेकिन हिंदू विवाह अधिनियम-1955, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम-1956, और हिंदू दतकत्ता और भरण-पोषण अधिनियम-1956 की धारा 2(2) और हिंदू वयस्कता और संरक्षता अधिनियम-1956 की धारा 3(2) के अनुसार अनुसूचित जनजाति के नागरिकों पर ये अधिनियम लागू ही नहीं होते, बशर्ते कि केंद्रीय सरकार इस संबंध में कोई अन्यथा आदेश सरकारी गजट में प्रकाशित ना करे।
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उपलब्ध सूचना और तथ्यों के अनुसार आज तक इस संदर्भ में केंद्र सरकार ने कोई आदेश / नोटिफिकेशन जारी नहीं किया है। ‘एक देश, एक कानून’ के विकासशील दौर में भी, शायद कानून मंत्रालय को यह आभास तक नहीं (हुआ) है कि अनुसूचित जाति के सदस्य संविधान में हिंदू हैं, मगर हिंदू कानूनों के लिए नहीं हैं? उपरोक्त सभी हिंदू अधिनियमों के मुताबिक, ‘हिंदू’ की परिभाषा में बौद्ध, सिख, जैन, उनकी वैध-अवैध संतान और धर्मांतरण करके ‘हिंदू’ बने व्यक्ति भी शामिल माने जाएंगे। मगर अनुसूचित जनजाति के सदस्यों/नागरिकों पर ये अधिनियम लागू नहीं होंगे। इसका मतलब यह कि हिंदू विवाह अधिनियम,1955 द्वारा लागू बहुविवाह, विवाह, विवाह विच्छेद , दतकत्ता, भरण-पोषण, उत्तराधिकार, संरक्षता वगैरह के तमाम प्रावधान, अनुसूचित जनजाति के सदस्यों / नागरिकों पर लागू नहीं हैं।
भारतीय संविधान और हिंदू कानूनों के बीच इस गम्भीर अंतर्विरोध और विसंगति को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में जानना-समझना जरूरी है। मिज़ोरम, मणिपुर, आसाम, मेघालय, त्रिपुरा में सैंकड़ों जनजातियां, उप-जनजातियाँ हैं, जिनके विवाह, तलाक, उत्तराधिकार सम्बंधी अपने अलग-अलग रीति-रिवाज, नीति, प्रक्रिया, संपत्ति अधिकार हैं। कहीं पुरुषों के हित में और कहीं स्त्रियों के। कुछ समय पहले मिज़ोरम में पारम्परिक रिवाजों को कानूनी रूप देने की पहल हुई है, मगर बाकी प्रदेशों में यथास्थिति बनी हुई है। सूरजमणि स्टेला कुजूर बनाम दुर्गा चरण हांसदा केस में दोनों पक्ष अनुसूचित जनजाति से सम्बद्ध हैं और हिंदू धर्म को मानते हैं, परंतु सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा कि उनका विवाह हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 2 (2) के प्रकाश में इस कानून के दायरे से बाहर है। वे केवल संताल रीति-रिवाज से ही शाषित होंगे।
बहुविवाह के लिए उन्हें, भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 494 (बहुविवाह) के तहत (ए. आई.आर. 2001 सुप्रीम कोर्ट 938) दोषी नहीं माना जा सकता। हिमावती देवी बनाम शेट्टी गंगाधर स्वामी मामले में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार किया कि अनुसूचित जनजाति के नागरिक अपने समुदाय के रीति-रिवाजों के अनुसार विवाह (ए.आई.आर. 2005 सुप्रीम कोर्ट 800) कर सकते हैं।
सुषमा उर्फ सुनीता देवी बनाम विवेक राय मामले में हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय का भी यही मत है कि अनुसूचित जनजाति के सदस्यों पर हिंदू विवाह अधिनियम-1955 ( एफ.ए.ओ. (एचएमए) 229 / 2014 निर्णय दिनांक 16 अक्टूबर, 2014) लागू नहीं होता। झारखंड उच्च न्यायालय ने न्यायमूर्ति डी. एन. पटेल और रत्नाकर भेंगरा ने विवाह विच्छेद मामले में संविधान के अनुच्छेद 366 और हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 2(2) और सुप्रीम कोर्ट के ‘सूरजमणि’ फैसले का विस्तार से उल्लेख करने के बाद अपील खारिज़ कर दी। मुख्य आधार वही कि अनुसूचित जनजाति के नागरिकों पर, हिंदू विवाह अधिनियम (राजेन्द्र कुमार सिंह मुंडा बनाम ममता देवी, 2015) लागू ही नहीं होता।
बहरहाल, विचारणीय मुद्दा यह है कि अनुसूचित जनजाति के सदस्यों/नागरिकों (देश की 9 प्रतिशत आबादी) को कब तक मुख्यधारा से बाहर हाशिए पर रखा जा सकता है? या रखा जायेगा यह एक विकराल यक्ष प्रश्न है। कब तक पिछड़ा, रुढ़िवादी, अनपढ़ और असभ्य बनाये रखा (जायेगा) जा सकता है? उन्हें कब तक ‘हिंदू’ मंदिरों (हिंदू मान्यताओं पर टिकी न्यायपालिका से खदेड़ कर ‘पंचायत’ के खूंटे से बांध कर रखा (जायेगा) जा सकता है? और क्यों?
क्या इसका कोई मानवीय, न्यायिक विवेक और मान्य तर्क हो सकता है? क्या सबको समान नागरिक संहिता की छतरी तले लाना सम्भव और आवश्यक है? एक तरफ परम्परा और पहचान के संकट हैं और दूसरी तरफ बहुमत की वर्चस्ववादी नीतियों के दुष्परिणाम। शिक्षित-शहरी और साधन संपन्न जनजाति के सदस्य भी उसी अतीत की बेड़ियों में जकड़े हैं। ये ऐसे सवाल हैं जिनपर न्यायपालिका के भीतर और बाहर व्यापक विमर्श आरंभ होना चाहिए।
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ब्राह्मणों (Brahmins) को हमेशा से हिंदू धर्म के “असली लाभार्थी” के रूप में देखा जाता है। बुद्धिजीवी और चिंतक लोग जाति व्यवस्था और ब्राह्मणों (Brahmins) के विशेषाधिकारों की आलोचना करते हैं। ब्राह्मण हिंदू धर्म के “असली लाभार्थी” हैं, हिंदुत्व को समझाने की एक सरलीकरण प्रक्रिया है। ब्राह्मणवाद एक ऐसी मनोवृत्ति है जिसके तहत व्यक्ति सम्मान, सुरक्षा, समृद्धि, स्वास्थ्य व शिक्षा के मामले में अपने अलावा और किसी को अपनी जगह पसन्द नहीं करता। लोग कहते हैं कि ऐसी मनोवृत्ति किसी भी देश के लिए जानलेवा है। ब्राह्मणों की सत्तापरस्ती (वामपंथ और दक्षिणपंथ) निष्ठा जितनी सार्वभौमिक है उतनी ही निर्विवाद भी है।
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