‘जमानत रद्द करना न्याय की विफलता के समान’ केजरीवाल

मूकनायक मीडिया ब्यूरो | 10 जुलाई 2024 | दिल्ली : दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने बुधवार (10 जुलाई) को हाईकोर्ट में दाखिल जवाब में कहा कि मेरी जमानत रद्द करना न्याय की विफलता के समान है। मैं विच हंट का शिकार हुआ हूं। दरअसल, जानबूझकर किसी व्यक्ति को परेशान करना विच हंट का शिकार होना कहलाता है। यह राजनीतिक विरोधी भी हो सकता है।

‘जमानत रद्द करना न्याय की विफलता के समान’ केजरीवाल

हाईकोर्ट में हुई सुनवाई में केजरीवाल ने कहा- ED कस्टडी के दौरान जांच अधिकारी ने कोई खास इन्टेरोगेशन (पूछताछ) नहीं किया। एक राजनीतिक विरोधी को परेशान और अपमानित करने के लिए अवैध रूप से गिरफ्तारी की गई है।

मामले को लेकर जस्टिस नीना बंसल कृष्णा की बेंच ने अब ED से जवाब दाखिल करने को कहा है। केस की अगली सुनवाई 15 जुलाई को होगी। केजरीवाल पर ED के अलावा CBI का केस भी चल रहा है। शराब नीति में भ्रष्टाचार को लेकर CBI ने उन्हें 26 जून को गिरफ्तार किया था।

केजरीवाल को शराब नीति में मनी लॉन्ड्रिंग मामले को लेकर ED ने 21 मार्च को गिरफ्तार किया था। 20 जून को ट्रायल कोर्ट से उन्हें जमानत मिल गई थी। इसके खिलाफ ED ने हाईकोर्ट में अपील की थी। हाईकोर्ट ने 25 जून को ट्रायल कोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी थी।

केजरीवाल ने कहा कि ED की दलीलें कानून के हिसाब से ठीक नहीं थीं। ED की दलीलें असंवेदनशीलता के रवैये को दर्शाती हैं। PMLA की धारा 3 के तहत मेरे खिलाफ कोई केस नहीं बनता है। और मेरे जीवन और स्वतंत्रता को झूठे और दुर्भावनापूर्ण मामले से बचाया जाना चाहिए।

केजरीवाल ने कहा- ED ने अन्य सह आरोपियों पर दबाव बनाया और उनसे ऐसे बयान दिलवाए, जिससे केस में ED को फायदा हुआ। ट्रायल कोर्ट का जमानत ऑर्डर न केवल तर्कपूर्ण था, बल्कि यह दर्शाता है कि दोनों पक्षों की दलीलों पर विवेक के आधार पर फैसला सुनाया गया था।

ऐसा कोई सबूत नहीं है जो यह साबित करे कि AAP को साउथ ग्रुप से रिश्वत मिली है। इस रिश्वत का गोवा चुनाव में इस्तेमाल तो दूर की बात है। AAP के पास एक भी रुपया नहीं मिला। इस संबंध में लगाए गए आरोप को साबित करने के कोई भी ठोस सबूत नहीं है। 

ट्रायल कोर्ट ने विवेक का इस्तेमाल नहीं किया – हाईकोर्ट 

हाईकोर्ट ने कहा कि दलीलों पर सही ढंग से बहस नहीं हुई थी, इसलिए राउज एवेन्यू कोर्ट के फैसले को रद्द करते हैं। फैसले को देखकर ऐसा लगता है कि केजरीवाल को जमानत देते समय विवेक का इस्तेमाल नहीं किया। ट्रायल कोर्ट की टिप्पणी पर विचार नहीं किया जा सकता, पूरी तरह से अनुचित है। यह दर्शाता है कि ट्रायल कोर्ट ने सामग्री पर अपना दिमाग नहीं लगाया है।

इस बात पर मजबूत तर्क दिया गया कि जज ने धारा 45 PMLA की दोहरी शर्त पर विचार-विमर्श नहीं किया। ट्रायल कोर्ट को ऐसा कोई निर्णय नहीं देना चाहिए जो हाईकोर्ट के फैसले से उलट हो। ट्रायल कोर्ट ने धारा 70 PMLA के तर्क पर भी विचार नहीं किया है।

राऊज एवेन्यू कोर्ट के बेल ऑर्डर की 5 बातें…

  • ED के पास केजरीवाल के खिलाफ आगे बढ़ने के लिए पर्याप्त सबूत नहीं हैं। वह किसी भी तरह से सबूत हासिल करने के लिए वक्त ले रही है। यही बात अदालत को जांच एजेंसी के खिलाफ फैसला लेने के लिए मजबूर करती है कि वह पक्षपात के बिना काम नहीं कर रही है।
  • जस्टिस न्याय बिंदू ने कहा- ED केजरीवाल के उठाए कुछ मुद्दों पर चुप है, जैसे कि उनका नाम CBI केस या ECIR की FIR में नहीं है। केजरीवाल के खिलाफ आरोप कुछ सह-आरोपियों के बयानों के बाद सामने आए हैं। कोर्ट ने अमेरिका के संस्थापकों में से एक बेंजामिन फ्रैंकलिन के कोट का जिक्र किया- ‘एक निर्दोष को सजा देने से बेहतर है कि 100 दोषी छूट जाएं’।
  • यह भी एक बड़ा फैक्ट है कि केजरीवाल को आज तक अदालत ने तलब नहीं किया है, फिर भी वे अभी भी चल रही जांच के बहाने ED के कहने पर न्यायिक हिरासत में हैं। ED यह स्पष्ट करने में विफल रहा है कि पूरी धनराशि का पता लगाने के लिए उसे कितना समय चाहिए।
  • यह भी ध्यान देने वाली बात है कि ED इस बारे में चुप है कि अपराध की आय का इस्तेमाल गोवा में आम आदमी पार्टी ने विधानसभा चुनावों में कैसे किया है, जबकि लगभग 2 साल बाद भी इस पूरे अमाउंट का बड़ा हिस्सा पता लगाना बाकी है।
  • इसकी भी संभवाना है कि केजरीवाल के कुछ परिचित लोग किसी अपराध में शामिल हों या अपराध में शामिल किसी तीसरे व्यक्ति को जानते हों, लेकिन ED अपराध की आय के संबंध में उनके खिलाफ कोई जाहिर सबूत नहीं दे सकी है।

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डूँगरी बाँध और डीएमआईसी भूमि-हड़प अभियान

मूकनायक मीडिया ब्यूरो | 03 अगस्त 2025 | दिल्ली : शायद यह सिर्फ एक संयोग हो, या शायद नियति और न्याय की कोई  ज्यादा उलझी हुई पहेली। देश की कुल आबादी में मात्र 9 प्रतिशत हिस्सा आदिवासियों का है, लेकिन वन और खनिज संपदा का ज्यादातर  उखड़े हुए टूटी हुई हिस्सेदारी उनकी रिहाइश वाले इलाकों में ही मौजूद है। बिजली और खनन से जुड़ी देश की 40 प्रतिशत विकास परियोजनाएं भी इन्हीं इलाकों में चल रही हैं। विकास यहाँ किसी अंधड़ या चक्रवात की तरह आता है, जिसमें रातों-रात गाँव के गाँव उजड़ जाते हैं।

डीएमआईसी के तहत डूँगरी बाँध ऐसे ही एक अन्य भूमि-हड़प अभियान का हिस्सा बनने जा रहा है। आर्य और द्रविड़ सभ्यताओं की शुरुआत के भी हजारों साल पहले से सैंधव लोग यहाँ रहते आ रहे हैं। पीड़ित  लोग बुलडोजरों और अर्थमूवरों की गड़गड़ाहट सुनते अपने-अपने मवेशी लिये बंजारों की तरह नया ठौर तलाशने निकलने को मजबूर हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत चुनावों में वे जिन नेताओं को वोट देते आयें हैं, उनमें से अधिकाँश मुँह फ़ेर चुके हैं या उनके मुँह में दही जम चुका है।

गाँवों में डीएलसी दरें कम है। भूमि अवाप्त कर मुआवजा राशि डीएलसी दर से दी जायेगी। काश्तकारों की भूमि अवाप्त की जा रही है तो बाजार मूल्य से मुआवजा राशि मिलनी चाहिए। दिल्ली-मुंबई इंडस्ट्रियल कॉरिडोर (डीएमआईसी) को केंद्रीय वाणिज्य व उद्योग मंत्रालय ने नेशनल इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट एंड इम्प्लेंटेशन ट्रस्ट (एनआईसीडीआईटी) का दर्जा दे दिया है। अब यह ट्रस्ट विभिन्न राज्यों से आने वाले इंडस्ट्रियल कॉरिडोर के प्रस्ताव को फंडिंग, जमीन अधिग्रहण में मदद और उसे एप्रूव करने संबंधी सभी काम करेगा।

डूँगरी बाँध के पहले चरण में करौली सवाई माधोपुर जिलों के 76 गाँवों की बारी है, पर यह सिलसिला यहाँ यूकने वाला कदापि नहीं है। जैसे-जैसे बाँध की ऊँचाई बढ़ेगी वैसे-वैसे इसकी जद में न जाने ऐसे कितने इलाके और आयेंगे। अभी से लोगों दिलोंदिमाग में ऐसे-ऐसे मंजर दिखने लगे हैं मानो उनकी आँखें उस मायावी सपने को को देखने के लिए तैयार ही नहीं है। यहाँ जाकर लगता ही नहीं कि यहाँ कभी लोग रहते रहे होंगे, उनके मांदलों की थाप और गीतों की हेक गूंजती होगी। कुतर्कों का एक दुष्चक्र अर्से से आदिवासी विस्थापन के मुद्दे को घेरे हुए है। क्या देश हाई वे के बगैर रह सकता है?  

अडानी-अंबानी, टाटा-बिड़ला के बगैर क्या यह तरक्की के रास्ते पर एक कदम भी आगे बढ़ा सकता है?  अगर नहीं तो आदिवासी हितों पर हंगामा करना भूलकर काम की बात कीजिए। जान कर आश्चर्य होता है कि इस तर्क की काट पहली बार भारत सरकार द्वारा गठित एक कमिटी ने की है। पिछली यूपीए सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय की पहल पर बनी इस कमिटी की रिपोर्ट कहती है कि भारत में आदिवासी जमीनों पर देसी-विदेशी कंपनियों के कब्जे की मौजूदा लहर कोलंबस के बाद संसार के सबसे बड़े भूमि हड़प अभियान का रूप ले रही है।  

डीएमआईसी (दिल्ली-मुंबई औद्योगिक गलियारा) परियोजना का कुल क्षेत्रफल लगभग 436,000 वर्ग किलोमीटर है। यह गलियारा डीएफसी के दोनों तरफ 150-200 किलोमीटर की पट्टी में फैला हुआ है। निवेश क्षेत्रों का न्यूनतम क्षेत्रफल 200 वर्ग किलोमीटर और औद्योगिक क्षेत्रों का न्यूनतम क्षेत्रफल 100 वर्ग किलोमीटर होगा। इस परियोजना में 100 अरब डॉलर अर्थात 87,20,29,64,90,000/ रुपए का अनुमानित निवेश होगा। 

राजस्थान का इतिहास गौरवशाली रहा उसमें आदिवासी सर्वोपरि है। यहाँ के प्रकृति पुत्र आदिवासी इस धरा पर आदिमकाल से ही रहते आये है उनमें प्रमुख मीणा और भील है। खास तौर पर खनन और हाई वे के मामले में तो स्थिति जंगल राज जैसी है। डूँगरी बाँध पर हुई खोजबीन से पता चला है कि ज्यादातर कंपनियों को प्रतिवर्ष जितनी जमीन ख़रीदने की अनुमति दी गई थी, उसका चार से पांच गुना वे पिछले कई सालों से बेचती आ रही हैं और अब तक उनके खिलाफ कोई सरकारी नोटिस भी जारी नहीं हुआ है।

जाहिर है, डीएमआईसी के इलाकों में सरकारी जानकारी से भी कहीं ज्यादा विस्थापन हो रहा है और आगे यह भयावहता विकराल रूप धारण करेगी। केंद्र और राज्य सरकारों की चिंता कंपनियों को आदिवासियों की जमीन कोडियों के भाव बेचकर लाइसेंस देकर खत्म हो जाती है और लाइसेंस का कई गुना काम वे अफसरों को घूस खिला के कर लेती हैं। कानूनी तौर पर इन इलाकों में रहने वालों का न तो कोई हक अपने आस-पास की वन संपदा पर है, न ही अपने पैरों के नीचे पड़ी खनिज संपदा पर।

उनके हिस्से सिर्फ विनाश और विस्थापन आता है, और एक आत्मघाती गुस्सा, जो कभी माओवादियों के तो कभी मधु कोड़ा जैसे नेताओं के दरवाजे लाकर छोड़ जाता है। हाल के अपने एक बयान में प्रधानमंत्री ने भी आदिवासियों की तकलीफ से हामी भरी है। लेकिन वन और खनिज संपदा में अगर स्थानीय समुदायों की भागीदारी सुनिश्चित नहीं की जाती तो ऐसे सहानुभूतिपूर्ण बयानों का भी क्या फायदा है।

25 साल बाद भी बीसलपुर बांध परियोजना के विस्थापित को जमीन आवंटित क्यों नहीं की। बीसलपुर बांध के डूब क्षेत्र के विस्थापित पुनर्वास कॉलोनियों में सड़क जैसी बुनियादी सुविधा के लिए तरस रहे हैं। बीसलपुर बांध 18 साल पहले बन गया, विस्थापितों को सड़कों के नाम पर मिले गड्‌ढे। 30 से ज्यादा गाँवों के हजारों लोगों को डूब क्षेत्र से पुनर्वास कॉलोनियों में विस्थापित किया गया। हमारा कसूर इतना था कि बीसलपुर बांध के डूब क्षेत्र में हमारे गाँव और ढाणियां आ गए। अपना गाँव छूटा और विस्थापित हो गए।

आधे से ज्यादा राजस्थान को पानी पिलाने वाले विस्थापित खुद फ्लोराइड युक्त पानी पीने को मजबूर है। बीसलपुर परियोजना के कारण कुल 63 गॉव विस्थापित हुए है। जिसमें डूब से प्रभावित परिवारों की संख्या 5700 है एवम् जनसंख्या लगभग 30,000 है। डूब क्षेत्र की कुल भूमि 21836 हैक्टेयर है। अब बात करते हैं बीसलपुर परियोजना के विस्थापितों के दर्द की, तो बांध बनने के 23 साल बाद भी 118 पुर्नवास कॉलोनियों में से 6 कॉलोनियाँ अभी तक विकसित नहीं हुई हैं। पुर्नवास कॉलोनियों में सम्पर्क सड़क, आन्तरिक सड़के, हैण्ड पम्प, कुंआ, स्कूल, चिकित्सा भवन, बीज गोदाम, सामुदायिक भवन का आज भी अभाव है। यदि बन गये है तो उनकी हालत जीर्ण शीर्ण अवस्था में है।

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राजस्थान की 7 सीटों के उपचुनाव में हमेशा की तरह बैकफुट पर बीजेपी

मूकनायक मीडिया ब्यूरो | 22 नवंबर 2024 | दिल्ली : राजस्थान की 7 सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजे शनिवार को सामने आयेंगे। सियासी गलियारों में चर्चा है कि इस बार भी उपचुनाव में बीजेपी अपना इतिहास दोहरायेगी और जीत-हार की परंपरा बदल नहीं पायेगी।

राजस्थान की 7 सीटों के उपचुनाव के नतीजे बीजेपी बैकफुट पर

प्रदेश में हुए पिछले 16 उपचुनाव के नतीजों पर गौर करें तो ये परंपरा रही है कि – ‘बीजेपी उपचुनाव में हमेशा बैकफुट पर रहती है’ और ‘मतदान घटने पर कांग्रेस को फायदा होता है।’ इस बार 7 में से 6 सीट पर मुख्य चुनाव से वोटिंग घटी है। तो घटी हुई वोटिंग का बीजेपी को नुकसान होगा? 

राजस्थान की 7 सीटों के उपचुनाव में हमेशा की तरह बैकफुट पर बीजेपी

विधानसभा चुनाव की बजाय उप चुनाव में वोटिंग गिरी

उपचुनाव वाली 7 सीटों पर विधानसभा चुनाव, 2023 में कांग्रेस ने 4 और बीजेपी, आरएलपी व बीएपी ने 1-1 सीटों पर कब्जा जमाया था। इस बार हुए इन सीटों के मतदान प्रतिशत को देखें तो खींवसर सीट को छोड़ सभी पर मतदान के आंकड़े मुख्य चुनाव की तुलना में गिरे हुए हैं।

2013 से अब तक हुए उपचुनाव में इक्का-दुक्का उदाहरण छोड़ दें, तो मुख्य चुनाव के मुकाबले लगभग हर सीट पर वोटिंग प्रतिशत गिरा ही है। इसका सबसे बड़ा कारण है कि राजस्थान के उपचुनाव में एक बार भी सरकार के बनने-बिगड़ने जैसे समीकरण नहीं बने। यदि ऐसे समीकरण बनते हैं, तो वोटर्स में अलग ही उत्साह नजर आता है।

राजनीतिक एक्सपर्ट प्रोफ़ेसर राम लखन मीणा के अनुसार सरकार पर कोई फर्क नहीं पड़ने के कारण वोटर्स अमूमन सुस्त हो जाते हैं। ऐसा ही हाल 7 सीटों के मतदान में भी देखने को मिला है। केवल एक सीट खींवसर को छोड़ दें तो बाकी 6 सीटों पर मतदान प्रतिशत मुख्य चुनाव की तुलना में कम ही हुआ है।

उपचुनाव वाली मौजूदा सीटों पर मतदान के आंकड़े और उससे बन रहे समीकरण जान लेते हैं….

राजनीतिक एक्सपर्ट नारायण बारेठ के मुताबिक मुख्य चुनाव के मुकाबले 7 में से 6 सीटों पर कम वोटिंग हुई है। माना जाता है कि कम वोटिंग का फायदा कांग्रेस को मिलता है, लेकिन इस बार समीकरण इतने उलझे हुए हैं कि ये बात खरी उतरती नहीं दिख रही।

वहीं, वरिष्ठ राजनीतिक विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर मीणा ने मूकनायक मीडिया को बताया कि यह कहना भी मुश्किल है कि पिछले उप चुनाव के जैसे कांग्रेस इस उप चुनाव में भी एक तरफा प्रदर्शन करेगी। किंतु बीजेपी का प्रदर्शन इस उप चुनाव में सुधरने की संभावना नहीं है और कांग्रेस कुछ सीटें गंवा सकती है।

अब पिछले 11 साल में हुए 16 सीटों पर जानते हैं, उप चुनाव में किसका पलड़ा भारी रहा?

मुख्य चुनावों के आंकड़ों के आधार पर कहा जाता रहा है कि अगर उपचुनाव में वोटिंग परसेंटेज कम रहता है तो फायदा कांग्रेस को मिलता है और अधिक रहने पर बीजेपी को। यह पैटर्न राजस्थान के उपचुनावों में अब तक सटीक भी साबित हुआ है।

भास्कर ने 2013 से अब तक 16 सीटों के उपचुनाव में हुए मतदान का रिकॉर्ड खंगाला। सामने आया कि एक-दो सीटों को छोड़कर वोटिंग प्रतिशत गिरा ही है। पैटर्न के मुताबिक बीजेपी की सरकार होने के बावजूद कांग्रेस भारी पड़ी है। उपचुनावों में कांग्रेस ने 16 में से 11 सीटों पर जीत हासिल की है। बीजेपी ने मात्र 3 और बीएपी व आरएलपी ने 1-1 सीट जीती हैं।

अब एक नजर पिछली 16 सीटों पर उपचुनाव के नतीजों और वोटिंग पैटर्न के प्रभाव पर डालते हैं… जब सत्ता में थी बीजेपी, फिर भी उपचुनाव वाली 8 में से 6 सीटें हारी

2013 से 2024 के बीच 8 सीटों के उपचुनाव तब हुए जब बीजेपी सरकार सत्ता में थी। फिर भी बीजेपी 2 सीटें ही सीटें जीत पाई, कांग्रेस ने 5 पर कब्जा जमाया। मौजूदा बीजेपी सरकार में दो सीटों पर उपचुनाव पहले हो चुके हैं।

श्रीकरणपुर सीट पर कांग्रेस प्रत्याशी और तत्कालीन विधायक गुरमीत सिंह कुन्नर के निधन के कारण चुनाव स्थगित करना पड़ा था। यहां उपचुनाव हुआ तो कांग्रेस ने जीत दर्ज की थी। इसके अलावा बागीदौरा सीट पर भी बीजेपी को हार मिली। यहां कांग्रेस ने सीट गंवाई और बीएपी को जीत हासिल हुई।

इन 8 सीटों के चुनाव में केवल 2 बार अपवाद देखने को मिला। सूरजगढ़ सीट पर हुए 2014 के उपचुनाव में मुख्य चुनाव से अधिक मतदान हुआ, जो कांग्रेस के खाते में गई। वहीं, कोटा साउथ पर 2014 के उपचुनाव में मतदान गिरने के बावजूद बीजेपी ने जीत दर्ज की।

सत्ता में कांग्रेस (2018 से 2023) – उप चुनाव वाली 8 सीटें

कांग्रेस जब सत्ता में रही, उस दौरान हुए 8 सीटों पर उपचुनाव के नतीजे भी उसके पक्ष में आए। कांग्रेस ने 8 में से 6 पर जीत हासिल की। बीजेपी को एक और आरएलपी को 1 सीट मिली।

पिछले 9 उप चुनावों में वोटिंग पैटर्न से जो रिजल्ट आये, क्या इस बार वैसे ही रिजल्ट देखने को मिलेंगे?

एक्सपर्ट्स के अनुसार पिछले 9 उप चुनाव में कम वोटिंग का फायदा सीधे तौर पर कांग्रेस को मिला। इस बार 7 सीटों के उप चुनाव में 6 सीटों पर वोटिंग परसेंटेज गिरा है, लेकिन सीधा फायदा कांग्रेस को होगा, यह कहना मुश्किल है। इस बार समीकरण बहुत उलझे हुए हैं।

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आमतौर पर देखा गया है कि सत्ता में होने के बावजूद बीजेपी का उपचुनाव में प्रदर्शन काफी निराशाजनक रहा है। जबकि कांग्रेस ने सरकार होते हुए भी और विपक्ष में रहते हुए भी बीजेपी के मुकाबले अधिक सीटें जीती हैं। लेकिन इस बार संकेत कुछ अलग मिल रहे हैं। कम वोटिंग परसेंटेज से कांग्रेस को फायदा होने जैसी बातों पर इस उप चुनाव का रिजल्ट विराम लगा सकता है।

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