मूकनायक मीडिया ब्यूरो | 20 जुलाई 2024 | दिल्ली : जब उत्तर प्रदेश से अलग होकर उत्तराखंड बना। मध्य प्रदेश से अलग होकर छत्तीसगढ़ बना, बिहार से अलग होकर झारखंड बना, आंध्र से अलग होकर तेलंगाना बना तो इसके कई कारण थे। भौगोलिक भी, आर्थिक भी और पिछड़ापन भी। ये सभी राज्य पहले भौगोलिक दृष्टि से बहुत विस्तृत थे। बहुत बड़े थे।
भील प्रदेश की पुरजोर माँग क्यों उठी है आखिरकार
राज्य सरकारें चाहकर भी इतने बड़े प्रदेश के सभी भागों का समान रूप से विकास नहीं कर पाती थीं। यही वजह थी कि बड़े राज्यों को बाँटकर छोटा किया गया। लेकिन सवाल यह है कि क्या राज्यों को छोटा करने के बाद भी सरकारों ने उनका समान रूप से विकास किया? नहीं किया।
4 राज्यों के 43 जिलों अलग करने वाली मांग
दरअसल, 17 नवंबर 1913 को राजस्थान और गुजरात की सीमा पर स्थित पहाड़ियों में मानगढ़ नरसंहार हुआ था। ब्रिटिश सेना ने सैकड़ों भीलों को बेरहमी से मार डाला, जो एक स्वदेशी समुदाय है। इस क्रूर घटना को कभी-कभी 1919 में हुए कुख्यात जलियांवाला बाग हत्याकांड के संदर्भ में “आदिवासी जलियांवाला” के रूप में संदर्भित किया जाता है।
यह प्रस्तावित राज्य चार राज्यों, अर्थात गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र से 43 जिलों को अलग करके बनाया जाएगा। भील प्रदेश में शामिल किए जाने वाले कुछ जिले दक्षिणी राजस्थान के डूंगरपुर, बांसवाड़ा, सलूंबर, सिरोही, पाली और प्रतापगढ़ हैं।
मध्य प्रदेश में रतलाम, झाबुआ, अलीराजपुर, धार और पेटलावद; गुजरात में पंच महाल, गोधरा, दाहोद, झालोद, और डांग; और महाराष्ट्र में नासिक और धुले क्षेत्र को शामिल किए जाने की मांग की जा रही है।
आदिवासी अब अपने क्षेत्र का विकास खुद करना चाहते हैं
क्या झारखंड के हर इलाक़े को आप आज राँची जैसा डेवलप्ड कह सकते हैं? क्या छत्तीसगढ़ का चप्पा-चप्पा आज भी रायपुर की तरह विकसित कहा जा सकता है? क्या उत्तराखंड और तेलंगाना आज भी समान रूप से सरसब्ज है?
गलती किसकी है? राजनीतिक दलों की? या ये जिस वोट की राजनीति के बूते चल रहे हैं उसकी? या उन नेताओं की, जिन्हें जीतने के लिए आदिवासियों के वोट तो चाहिए पर वे उनके विकास के लिए कुछ नहीं करना चाहते। भले ही वे नेता खुद भी आदिवासी ही क्यों न हों!
मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र और गुजरात के कुछ ज़िलों को मिलाकर नए भील प्रदेश की माँग उठी है तो बाक़ी पार्टियाँ या सत्ताधारी दल इस माँग को यह कहकर ख़ारिज करने पर तुले हैं कि जाति के आधार पर अलग प्रदेश नहीं बनाया जा सकता।
सही है। लेकिन यह मामला केवल जाति का नहीं है। क्षेत्र का पिछड़ापन और इसके चलते शिक्षा के उजाले का वहाँ उस तरह नहीं पहुँच पाना, जिस तरह अन्य इलाक़ों में पहुँचा है, यह भी बहुत बड़ा कारण है। बल्कि कहना चाहिए कि यही सबसे बड़ा कारण है।
राजकुमार रोत जैसे युवाओं को जिताकर ये आदिवासी अब अपने क्षेत्र का विकास खुद करना चाहते हैं। अपने तरीक़े से करना चाहते हैं। वर्षों तक जन प्रतिनिधियों के अन्याय का शिकार होने और होते रहने के कारण जो ग़ुस्सा फूटता है, अलग आदिवासी प्रदेश की माँग वो ग़ुस्सा ही है।
दुर्भाग्य यह है कि हमारी राजनैतिक व्यवस्थाएँ और सत्ताएँ किसी जाति, समाज या समूह का ग़ुस्सा फूटने के इंतजार में बैठी रहती हैं। तब से पहले उस क्षेत्र या उस समूह के विकास के बारे में वे सोचते तक नहीं। ग़ुस्सा फूटना स्वाभाविक है।
सबसे पहले 1913 में उठी थी यह मांग
राजस्थान की बांसवाड़ा-डूंगरपुर लोकसभा क्षेत्र (Banswara Lok Sabha Constituency) से भारत आदिवासी पार्टी (BAP) को जीत हासिल करने के बाद एक बार फिर से 108 साल पुरानी भील प्रदेश (Bhil Pradesh) की मांग जोर पकड़ती जा रही है।
1913 से भील समुदाय अनुसूचित जनजाति विशेषाधिकारों के साथ एक अलग राज्य या प्रदेश की मांग कर रहा है। यह मांग मानगढ़ नरसंहार की दुखद घटना के बाद भील समाज सुधारक और आध्यात्मिक नेता गोविंद गुरु ने उठाई थी।
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अलग से भील प्रदेश बनाने की मांग का इतिहास 108 साल पुराना है, जिसकी शुरुआत राजस्थान से हुई और धीरे-धीरे यह मध्य प्रदेश, गुजरात, और महाराष्ट्र तक पहुंच गई है। भारत आदिवासी पार्टी द्वारा भील प्रदेश के लिए उनकी मांग में गुजरात के पूर्वोत्तर, दक्षिणी राजस्थान और मध्य प्रदेश के पश्चिमी हिस्से के जिलों को शामिल करना शामिल है, जिसमें लगभग 20 पूरे जिले और 19 अन्य के हिस्से शामिल हैं।
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