मूकनायक मीडिया ब्यूरो | 11 नवंबर 2024 | जयपुर : आज भी देश के गाँवों में ऐसा माहौल है कि एक दलित किसी उच्च जाति के लोगों के ख़िलाफ़, बिना पिटने की संभावना के कुछ कहने की हिम्मत नहीं करता, न जाति आधारित सामाजिक नियमों से हटकर चलने की।
ब्राह्मणवादी समाज पर कुठाराघात, अछूतों को न्याय, स्त्री समानता और दलितों को शिक्षित करने जैसे विषय इस किताब में सम्मिलित है। गुलामगिरी में हिन्दू देवी-देवताओं को दलितविरोधी बताते हुए उनका खंडन हुआ है।
गुलामगिरी : जातिवादी शोषण के ख़िलाफ़ क्रांति एवम् ब्राह्मणवाद पर प्रखर प्रहार का दस्तावेज़
आये दिन खबरें पढ़ने को मिलती हैं कि एक दलित नौजवान को घोड़ी चढ़ कर गाँव में बारात नहीं निकालने दी गयी। या एक होनहार दलित लड़की का उच्च परीक्षा में पार होना, गाँव के बड़े लोगों को गवारा नहीं था, तो उसके घर वालों को गाँव से निकाल दिया। दलित महिलाओं को उच्च जाति के मर्दों की ज़्यादतियों से बचे रहने के लिए चौबीस घंटे नए पैंतरे सोचते रहना पड़ता है।
क्या होगा यदि हम गुलामी के इतिहास को एक दृष्टिकोण के रूप में उपयोग करें, जिससे आज हम न्याय की अपनी धारणा पर पुनर्विचार कर सकें? यह विचार कि दासता ने गुलाम लोगों को “अमानवीय” बना दिया, यह सुझाव देता है कि उनकी मानवता को बार-बार साबित करने की आवश्यकता है।
लेकिन इस सबके चलते हुए, देश में जगह-जगह, सदियों से चले आ रहे जातिगत शोषण को तोड़ने के लिए, समता और न्याय के सपने से प्रेरित बहुत से लोग और संगठन अपनी आवाज़ बुलंद कर रहे हैं। समता और न्याय जैसे शब्द हमारे सपने में शामिल हैं और आज हमारे पास, संविधान द्वारा दिये गए अधिकार के रूप में हैं – इस बात के पीछे लगभग डेढ़ सौ साल पहले, ज्योति राव फुले द्वारा लिखी गई पुस्तक, ‘गुलामगिरी’ का बड़ा हाथ है।
ब्राह्मणवादी जातिव्यवस्था से लड़ने का एक लंबा इतिहास है। इस संघर्ष का बीज बोने और फैलाने में, महान विचारक, समाज सेवक और क्रांतिकारी कार्यकर्ता श्री ज्योतिबा फुले और उनकी 1873 में लिखी ‘गुलामगिरी’ पुस्तक का बहुत बड़ी भूमिका है। उस समय जाति व्यवस्था के ख़िलाफ़ अपने बेबाक विचारों को पुस्तक के रूप में लिखना बहुत हिम्मत वाला काम था।
ज्योतिबा फुले व सावित्री फुले का नाम, अधिकतर दलितों और लड़कियों की शिक्षा के संदर्भ में लिया जाता है। यह सही भी है क्योंकि 1848 में पुणे में उन्होंने अछूतों के लिए पहला स्कूल खोला। 1857 में भारत का लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोला।
यह एक ऐसी किताब है जिसे अपने पाठक पाने में काफी समय लगा। समकालीन विमर्श में मानवाधिकारों का जो संस्करण हावी है, वह दासता के इतिहास से महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित नहीं है, यद्यपि यदि ऐसा होता तो बेहतर होता।
ऐसा करने के लिए इन दोनों को समाज से बहुत गालियां खानी पड़ीं। जान से मारने के प्रयास भी हुए। लेकिन शिक्षा का काम करने के पीछे उनकी मूल सोच, जाति के नाम पर एक बड़े तबके को गुलामी से मुक्त करवाना थी।
देश की असली संपत्ति बनाने वाले किसान, हर रोज पैसे नहीं कमा पाते। उनकी फसल साल में एक बार ही तैयार होती है, जबकि वे साल भर उधार पर सामान खरीदते हैं। देश की पूरी बैंकिंग व्यवस्था मुख्य रूप से इसी उपज विरोधी बिल आंदोलन पर आधारित है।
धोंडिराव और ज्योतिराव नामक दो पात्रों के संवाद के रूप में लिखी इस पुस्तक में उन्होंने दासता के इतिहास और अपने देश में जातियों की उत्पत्ति की नई स्थापना पेश की। उनका मानना था कि उच्च वर्ण के लोगों ने, अपने श्रम कार्य करने के लिए कुछ लोगों को गुलाम बनाया और ये लोग बाद में शूद्र कहलाए।
यह एक जातिवादी षड्यंत्र का हिस्सा था। गुलामगिरी पुस्तक इस षड्यंत्र की कलाई खोलने वाली पहली पुस्तक थी। उन्होंने ब्राह्मणों और सामंतों के वर्चस्व को स्थापित करने वाले धार्मिक हिंदू ग्रंथों, अवतारों और देवताओं की कहानियों का तार्किक रूप से वैज्ञानिक विश्लेषण करते हुए खंडन किया।
साथ ही अंग्रेजों के कामकाज की भी जातिव्यवस्था के चश्मे से व्याख्या की। इस किताब के माध्यम से उन्होंने जाति व्यवस्था के झूठ को समझाया और दलितों को आत्मसम्मान से जीने के लिए प्रेरित किया। यह करने के लिए उन्होने तर्क का सहारा लेकर बहुत रोचक और सरल तरीके से बातों को समझाया न कि कल्पना व भावनाओं के माध्यम से।
आज के दौर में ‘गुलामगिरी’ का क्या महत्व है, स्वयं फुले ने ‘गुलामगिरी’ की भूमिका में लिखा है — ‘प्रत्येक व्यक्ति को आज़ाद होना चाहिए। यही उसकी बुनियादी आवश्यकता है। जब व्यक्ति आज़ाद होता है, तब उसे अपने विचारों को दूसरों के समक्ष स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त करने का अवसर मिलता है।’
इस किताब की एक और रोचक बात यह है कि फुले ने इसे उन अमरीकी लोगों को समर्पित किया है जिन्होंने अमरीका में गुलामी को खत्म करने का संघर्ष किया। इससे स्पष्ट है कि वे पूरे विश्व में चल रहे अन्याय, शोषण के खिलाफ संघर्षों से जुड़ाव महसूस करते थे। अन्याय के ख़िलाफ़ संघर्ष की उनकी सोच केवल हमारे देश के जातीय अन्याय तक सीमित नहीं थी। वे स्त्रियों पर होने वाले अन्याय, आर्थिक असमानता – प्रत्येक प्रकार के शोषण के विरुद्ध थे।
ज्योतिबा फूले की गुलामगिरी किताब ने अपने समय के सामाजिक-राजनैतिक आंदोलन को बहुत प्रभावित किया और आज भी करती है। उत्तर भारत के सामाजिक कार्यकर्ताओं में इसकी जानकारी बहुत कम है। यह सभी के लिए एक बहुत ही ज़रूरी किताब है, जो जातिवाद से लड़ने का तार्किक रास्ता दिखाती है।
जाति व्यावस्था के विषय में अपने विचारों को मजबूत करने के लिए इसे अवश्य पढ़ा जाना चाहिए। इस किताब को आप अपने मोबाइल में डाउनलोड अवश्य करें और जब भी समय मिले – कहीं जाते-आते या बैल-भैंस चराते हुए इसे ज़रूर पढ़ें।
जातिवादी, विभेदकारी और शोषणकारी व्यवस्था के ख़िलाफ़ आधुनिक भारत में पहली मुखर आवाज़ उठाने वाले थे- ज्योतिबा फूले। उन्होंने समाज में स्थापित ब्राह्मणवादी संरचना के हर तत्व के खिलाफ़ अपना विरोध दर्ज किया। इस बात की तस्दीक़ उनकी लिखी गई किताब ‘गुलामगिरी’ में होती है जिसमें उन्होंने धार्मिक और जातिवादी अवधारणा को अपने तर्कों से ग़लत सिद्ध कर दिया।
साथ ही समाज में यह स्थापित किया कि वे तमाम ग्रन्थ ईश्वर ने नहीं बल्कि उन मनुष्यों ने रचे, जिन्होंने संसाधनों पर कब्ज़ा करके मूल निवासियों को दास बना लिया है और यह सब कुछ उस शोषण को वैध घोषित करने और अपनी सत्ता की सर्वोच्चता बनाए रखने के लिए किया गया था।
उन्होंने ईश्वर पर सवाल दागते हुए कहा, ईश्वर अगर सबका स्वामी है तो भेदभाव क्यों करता है और पुरोहितों की सत्ता के ख़िलाफ़ कहा कि ईश्वर और भक्त के बीच दलाल का क्या काम है। यही कारण है कि फूले भारतीय सामाजिक व्यवस्था में जातिवादी शोषण के ख़िलाफ़ क्रांति के अग्रदूत माने जाते हैं।
गुलामगिरी : ब्राह्मणवाद पर प्रहार
सनातन परंपरा में ईश्वर के उद्धव और धरती पर उनके जीवन की गाथाएं प्रचलित हैं। ये तमाम ग्रन्थ ईश्वरीय अवतारों की बात करते हैं, जिन्होंने ‘राक्षसों’ और ‘अधर्मियों’ का संहार किया और ब्राह्मणों को भयमुक्त किया। इन ग्रन्थों में ब्राह्मण हमेशा सद्चरित, उदार और लोकहित की चिंता करने वाले बताए गए।
मनुस्मृति के पहले अध्याय में प्रकृति के निर्माण, चार युगों, पेशे और ब्राह्मणों की महानता का वर्णन है। इन सब के माध्यम से जनता के मन में वैचारिकी के आधार पर कब्ज़ा करने की कोशिश की गई। ये ‘नैरेटिव’ गढ़कर ब्राह्मणवादी सांस्कृतिक उपनिवेशवाद स्थापित किया गया।
अपनी किताब गुलामगिरी में ज्योतिबा फूले इन सारे नैरेटिव्स को ध्वस्त कर देते हैं। वह बताते हैं कि मत्स्य, कच्छप और वानर जैसे अवतारों की मनुष्यों से तुलना अवैज्ञानिक है। यह संभव ही नहीं है। न ही इनमें लेशमात्र भी सच्चाई है। ज्योतिबा फूले ने वर्णीय संरचना पर भी आघात किया और बताया कि यदि ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से पैदा हुए हैं तो क्या उनके मुख में योनि थी? क्या रजोधर्म के समय उनके मुख से रक्तस्राव होता था?
फूले बताते हैं कि ब्राह्मणों के ये ग्रन्थ भेदभावपूर्ण हैं क्योंकि इनमें भारत से इतर रहने वाले मनुष्यों जैसे अंग्रेजों के बारे में कोई विवरण नहीं है। यह समूची मानव जाति के बारे में कैसे नियम तय कर सकते हैं, अगर सबको स्वयं में शामिल ही नहीं कर सकते।
इन सभी तर्कों का कोई वैज्ञानिक काट उपलब्ध नहीं था, आज भी नहीं है लेकिन, फिर भी ब्राह्मणवादी भेदभाव मौजूद हैं। आज भी निचले स्तर के कामकाज जैसे सीवर आदि की सफ़ाई करने वाला शख्स दलित औ पिछड़ा ही होता है।
आज भी पितृसत्ता और महिला शोषण मौजूद है। दलितों के साथ भेदभाव के कितने ही उदाहरण रोज़ अखबारों में आते हैं, इसलिए फूले की यह क़िताब आज भी प्रासंगिक हैं। इसे पढ़ा जाना चाहिए ताकि इन शोषणों की अवैज्ञनिकता को खारिज़ किया जा सके।