मूकनायक मीडिया ब्यूरो | 18 जुलाई 2024 | जयपुर : ‘गुलामगिरी’ पुस्तक को अगर हम केवल एक पुस्तक के रुप में देख रहे हैं तो यह हमारी सबसे बड़ी भूल हो सकती है। सदियों से भारत में स्थापित सामाजिक व्यवस्था की जड़ों को किन-किन सामाजिक नियमों एवं धार्मिक कर्मकांडों, कुप्रथाओं एवं परंपराओं का सहारा लेकर मजबूती प्रदान की गई, आर्य-अनार्य के संघर्ष ने किस प्रकार उत्पादक अनार्यों को दास वर्ग और आर्यों को शासक व उपभोक्ता वर्ग के रुप में परिवर्तित कर दिया, ऐसे अनेक तथ्यों की पड़ताल कर ‘गुलामगिरी’ के माध्यम से जोतीराव फुले ने अभिव्यक्त किया है।
गुलामगिरी जाति व्यवस्था की पहली कटु आलोचना
मराठी में लिखी गई इस पुस्तक में प्रथम राष्ट्रपिता महात्मा जोतिबा फुले की 1885 में प्रकाशित गुलामगिरी (दासता) को जाति व्यवस्था के खिलाफ (Reading Of Jotiba Phule’s Gulamgiri) पहली रचनाओं में से एक माना जाता है। महात्मा फुले, जिन्हें अंबेडकर अपना गुरु मानते थे, ने गुलामगिरी लिखी थी – जो जाति व्यवस्था की पहली आलोचनाओं में से एक थी।
गेल ऑमवेट ने ठीक ही कहा है “हिंदू धर्म ब्राह्मण शोषण के रूप में: जोतिबा फुले” में किया है, फुले पहले से मौजूद प्रवचन को लेते हैं, और इसके नैतिक तर्क को उलट देते हैं। वह सिद्धांत की तथ्यात्मकता को स्वीकार करते हैं। वह कहते हैं, हां ब्राह्मण एक अलग जाति है। हां, उन्होंने हम पर आक्रमण किया और हमें जीत लिया। लेकिन वह इसके नैतिक तर्क को उलट देते हैं और कहते हैं कि आक्रमणकारी वास्तव में भ्रष्ट, क्रूर और भ्रष्ट थे। वे निश्चित रूप से श्रेष्ठ नहीं थे।
आज भी देश के गाँवों में ऐसा माहौल है कि एक दलित किसी उच्च जाति के लोगों के ख़िलाफ़, बिना पिटने की संभावना के कुछ कहने की हिम्मत नहीं करता, न जाति आधारित सामाजिक नियमों से हटकर चलने की। आए दिन खबरें पढ़ने को मिलती हैं कि एक दलित नौजवान को घोड़ी चढ़ कर गाँव में बारात नहीं निकालने दी गई।
इस पुस्तक में जहां एक ओर उन्होंने हिंदू धर्म के के मिथकों का खंडन किया है, वहीं दूसरी ओर यह भी बताया कि समाज में शूद्रों एवं अतिशूद्रों (अछूतों) का शारीरिक, आर्थिक और मानसिक दोहन किया जा रहा है। उनका उद्देश्य था कि समाज में अछूतों के पिछड़ेपन को कायम रखने के लिए ब्राह्मण वर्ग किस प्रकार का प्रपंच कर रहे हैं, इस कूटनीति से ना केवल शूद्र बल्कि अंग्रेज भी परिचित हों।
या एक होनहार दलित लड़की का उच्च परीक्षा में पार होना, गाँव के बड़े लोगों को गवारा नहीं था, तो उसके घर वालों को गाँव से निकाल दिया। दलित महिलाओं को उच्च जाति के मर्दों की ज़्यादतियों से बचे रहने के लिए चौबीस घंटे नए पैंतरे सोचते रहना पड़ता है।
लेकिन इस सबके चलते हुए, देश में जगह-जगह, सदियों से चले आ रहे जातिगत शोषण को तोड़ने के लिए, समता और न्याय के सपने से प्रेरित बहुत से लोग और संगठन अपनी आवाज़ बुलंद कर रहे हैं। समता और न्याय जैसे शब्द हमारे सपने में शामिल हैं और आज हमारे पास, संविधान द्वारा दिये गए अधिकार के रूप में हैं – इस बात के पीछे लगभग डेढ़ सौ साल पहले, ज्योति राव फुले द्वारा लिखी गई पुस्तक, ‘गुलामगिरी’ का बड़ा हाथ है।
ब्राह्मणवादी जातिव्यवस्था से लड़ने का एक लंबा इतिहास है। इस संघर्ष का बीज बोने और फैलाने में, महान विचारक, समाज सेवक और क्रांतिकारी कार्यकर्ता श्री ज्योतिबा फुले और उनकी 1873 में लिखी ‘गुलामगिरी’ पुस्तक का बहुत बड़ी भूमिका है। उस समय जाति व्यवस्था के ख़िलाफ़ अपने बेबाक विचारों को पुस्तक के रूप में लिखना बहुत हिम्मत वाला काम था।
ज्योतिबा फुले व सावित्री फुले का नाम, अधिकतर दलितों और लड़कियों की शिक्षा के संदर्भ में लिया जाता है। यह सही भी है क्योंकि 1848 में पुणे में उन्होंने अछूतों के लिए पहला स्कूल खोला। 1857 में भारत का लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोला।
ऐसा करने के लिए इन दोनों को समाज से बहुत गालियां खानी पड़ीं। जान से मारने के प्रयास भी हुए। लेकिन शिक्षा का काम करने के पीछे उनकी मूल सोच, जाति के नाम पर एक बड़े तबके को गुलामी से मुक्त करवाना थी। यह एक जातिवादी षड्यंत्र का हिस्सा था। गुलामगिरी पुस्तक इस षड्यंत्र की कलाई खोलने वाली पहली पुस्तक थी।
धोंडिराव और ज्योतिराव नामक दो पात्रों के संवाद के रूप में लिखी इस पुस्तक में उन्होंने दासता के इतिहास और अपने देश में जातियों की उत्पत्ति की नई स्थापना पेश की। उनका मानना था कि उच्च वर्ण के लोगों ने, अपने श्रम कार्य करने के लिए कुछ लोगों को गुलाम बनाया और ये लोग बाद में शूद्र कहलाए।
उन्होंने ब्राह्मणों और सामंतों के वर्चस्व को स्थापित करने वाले धार्मिक हिंदू ग्रंथों, अवतारों और देवताओं की कहानियों का तार्किक रूप से वैज्ञानिक विश्लेषण करते हुए खंडन किया। साथ ही अंग्रेजों के कामकाज की भी जातिव्यवस्था के चश्मे से व्याख्या की।
इस किताब के माध्यम से उन्होंने जाति व्यवस्था के झूठ को समझाया और दलितों को आत्मसम्मान से जीने के लिए प्रेरित किया। यह करने के लिए उन्होने तर्क का सहारा लेकर बहुत रोचक और सरल तरीके से बातों को समझाया न कि कल्पना व भावनाओं के माध्यम से।
आज के दौर में ‘गुलामगिरी’ का क्या महत्व है, स्वयं फुले ने ‘गुलामगिरी’ की भूमिका में लिखा है —‘प्रत्येक व्यक्ति को आज़ाद होना चाहिए। यही उसकी बुनियादी आवश्यकता है। जब व्यक्ति आज़ाद होता है, तब उसे अपने विचारों को दूसरों के समक्ष स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त करने का अवसर मिलता है।’
ऐसे में आवश्यकता है कि हम अपने देश की स्वाधीनता पर एक बार पुनर्विचार करें, आधुनिकता की परिभाषा को फिर से परिभाषित करें। कहने को हमने आधुनिक युग में जी रहे हैं। लेकिन समस्याएं तो आज भी उसी रुप में जीवित हैं, जिनका अंत करने के लिए जोतीराव फुले ने ‘गुलामगिरी’ की रचना की।
इस किताब की एक और रोचक बात यह है कि फुले ने इसे उन अमरीकी लोगों को समर्पित किया है जिन्होंने अमरीका में गुलामी को खत्म करने का संघर्ष किया। इससे स्पष्ट है कि वे पूरे विश्व में चल रहे अन्याय, शोषण के खिलाफ संघर्षों से जुड़ाव महसूस करते थे। अन्याय के ख़िलाफ़ संघर्ष की उनकी सोच केवल हमारे देश के जातीय अन्याय तक सीमित नहीं थी। वे स्त्रियों पर होने वाले अन्याय, आर्थिक असमानता – प्रत्येक प्रकार के शोषण के विरुद्ध थे।
ज्योतिबा फूले की गुलामगिरी किताब ने अपने समय के सामाजिक-राजनैतिक आंदोलन को बहुत प्रभावित किया और आज भी करती है। उत्तर भारत के सामाजिक कार्यकर्ताओं में इसकी जानकारी बहुत कम है। यह सभी के लिए एक बहुत ही ज़रूरी किताब है, जो जातिवाद से लड़ने का तार्किक रास्ता दिखाती है।
जाति व्यावस्था के विषय में अपने विचारों को मजबूत करने के लिए इसे अवश्य पढ़ा जाना चाहिए। इस किताब को आप अपने मोबाइल में डाउनलोड अवश्य करें और जब भी समय मिले – कहीं जाते-आते या बैल-भैंस चराते हुए इसे ज़रूर पढ़ें।
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यह पुस्तक भले ही 1873 में लिखी गई हो, किन्तु जोतीराव फुले के विचार आज भी हमारे समाज के लिए प्रासंगिक हैं। दुखद पहलू यह है कि जिन संकीर्ण विचारों, रुढ़िवादिता एवं कुत्सित परंपराओं का विरोध जोतीराव फुले ने डेढ़ सौ साल पहले किया था, वे आज भी समाज एवं सत्ता में उपस्थित हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि ‘गुलामगिरी’ का सार लोगों तक उसी उद्देश्य के साथ नहीं पहुंच सका है।