
मूकनायक मीडिया ब्यूरो | 04 अगस्त 2025 | दिल्ली : जल, जंगल, जमीन हमारा है। हम जंगल-झाड़ में रहने वाले आदिवासी हैं। जब तक आदिवासी हितों की बात नहीं होगी, देश में विकास की बातें करनी बेमानी है। 1996 के लोकसभा में गुरु जी का यह बयान काफी चर्चा में रहा। गुरु जी के इस बयान के पीछे उनका आंदोलन, जमीनी हकीकत और आदिवासियों पर हो रहे जुल्म की दास्तान थी।
स्मृति-शेष : वो सहे भी, लड़े भी, गिरे भी, और अंत में जीतकर चले गये शिबू सोरेन
जब भी आदिवासी हितों की बात हुई, पूरे देश में गुरु जी का नाम सबसे अव्वल आया। यही कारण है कि आदिवासियों के बीच में वह दिशोम गुरु बने। दिशोम गुरु का मतलब देश अथवा विश्व का गुरु। यह नाम मिला धनबाद के टुंडी में महाजनों और सूदखोरों के खिलाफ चलाये गये धनकटनी आंदोलन में। धनकटनी आंदोलन के बाद शिबू सोरेन को दिशोम गुरु की उपाधि मिली। आदिवासी समाज आज भी इन्हें अपने गुरु और देवता की तरह मानते हैं।
आदिवासियों को कहा- हक के लिए लड़ना सीखो
कहानी शुरू होती है शिबू सोरेन के पिता सोबरन माँझी की साहूकारों के द्वारा हत्या के बाद, तब गुरु जी मात्र 13 वर्ष के थे। इसके बाद गुरु जी का आंदोलन शुरू हुआ। रामगढ़ गोला से निकलकर यह हर जगह फैला।
टुंडी में उन्होंने साहूकार और महाजनों के खिलाफ सीधा आंदोलन छोड़ दिया। धीरे-धीरे उन्होंने आदिवासी समाज को जागरूक करना सिखाया। सूदखोरी और महाजनी प्रथा के खिलाफ लड़ने के लिए एकजुट किया। दिनभर शिबू सोरेन और उनके साथी टुंडी के घने जंगलों में रहते।
शाम होते ही सभी महाजनों के खेत-खलिहान में आ जाते। महाजनों ने जमीन हड़प ली थी। इसके बाद धान और अन्य फसलें काट कर चले जाते। लगातार शोषण से गुरु जी ने आदिवासी समाज को मुक्ति दिलाई थी, यही कारण था कि शिबू सोरेन दिसोम गुरु बन गये।
आदिवासी समाज उन्हें अपना सर्वोच्च नेता मानने लगे। प्रसिद्ध कवि स्व. अजीत राय की पुस्तक फर्क होगा की तुमने राय का को देखा होगा में जिक्र है कि इस आंदोलन के बाद शिबू सोरेन दिशोम गुरु बने।
कामरेड एके राय और विनोद बाबू का मिला साथ
धनबाद में इसी समय दो और महान विभूतियां सामाजिक सुधार और मजदूर केहकों की लड़ाई लड़ रहे थे। इसमें शीबू सोरेन को कामरेड एके राय और बिनोद बिहारी महतो (बिनोद बाबू) का भी साथ मिला। तीनों ने मिलकर अलग झारखंड की माँग के लिए लोगों में अलख जगाना शुरू किया।
शिबू सोरेन आदिवासी हित, एके राय मजदूर हित और बिनोद बाबू सामाजिक हितों की लड़ाई लड़ने लगे। 4 फरवरी फरवरी 1973 को धनबाद के चिरागोड़ा (बिनोद बाबू का घर) में शिबू सोरेन, एके राय और बिनोद बाबू एकजुट हुए और झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन किया।
इसी बीच धनबाद के गोल्फ ग्राउंड में एक सभा का आयोजन हुआ और पहली बार शिबू सोरेन जंगलों से निकलकर सार्वजनिक रूप से लोगों के बीच आये और यहीं से महानायक की कहानी शुरू होती है।
टुंडी का पोखरिया आश्रम बना आंदोलन का केंद्र
टुंडी का पोखरिया आश्रम आदिवासी आंदोलन का केंद्र बना। यहां 1972 से 1976 के बीच उनका आंदोलन जबरदस्त प्रभावी रहा। महाजनों ने आदिवासियों की जमीन हड़प ली थी। इसमें फसल लगाने लगे थे।
इधर, शिबू सोरेन की एक आवाज पर हजारों की संख्या में आदिवासी समाज के लोग तीर-धनुष के साथ आंदोलन में जुटते गये। हड़पी गयी खेतों में लगी फसल काट ले रहे थे। टुंडी के पोखरिया में आश्रम इसका केंद्र बिंदु था। यहां पर गुरु जी ने आंदोलन के दिन बिताये एवं आदिवासियों को जागृत किया। आज भी पोखरिया का यह आश्रम आंदोलन का गवाह है। आदिवासी समाज इसे पूजते हैं।
शिबू सोरेन की पूरी जीवनी जानिए
11 जनवरी, 1944 को रामगढ़ के पास स्थित नेमरा गाँव में सोबरन माँझी के घर शिबू सोरेन का जन्म हुआ था। शिबू के पिता सोबरन माँझी पेशे से शिक्षक थे। आस-पास के इलाके में सोबरन की गिनती सबसे पढ़े लिखे आदिवासी शख्स के रूप में होती थी। शिबू सोरेन के दादा चरण माँझी तत्कालीन रामगढ़ राजा कामाख्या नारायण सिंह के टैक्स तहसीलदार थे।
दादा अंग्रेजों के जमाने के टैक्स तहसीलदार, पिता शिक्षक
शिबू सोरेन के परिवार आर्थिक रूप से संपन्न रहा है। उनके दादा अंग्रेजों के जमाने के टैक्स तहसीलदार थे, जबकि पिता शिक्षक। जमीन-जायदाद की स्थिति बेहतर थी। शिबू सोरेन जब कुछ बड़े हुए तो उनके परिवार ने उन्हें पढ़ने के लिए गाँव से दूर एक हॉस्टल में रख दिया। जहां उनके साथ उनके बड़े भाई राजाराम सोरेन भी थे। गोला रोड स्थित हॉस्टल में दोनों भाई पढ़ाई कर रहे थे।
पिता की हत्या के बाद बदला शिबू सोरेन का जीवन
हॉस्टल में पढ़ाई करने के दौरान शिबू सोरेन के पिता की हत्या कर दी गयी। पिता की हत्या ने शिबू सोरेन को राजनीति की राह दिखाई। इसके बाद से ही उनके सामाजिक और राजनीतिक जीवन की शुरुआत हुई। 1957 में शिबू के पिता सोबरन अपने एक सहयोगी के साथ दोनों बेटों के लिए हॉस्टल में चावल और अन्य सामान पहुंचाने जा रहे थे। इसी दौरान लुकरैयाटांड़ गाँव के पास उनकी हत्या कर दी गयी।
पिता की हत्या के बाद शिबू सोरेन का पढ़ाई से मन टूट गया। इसके बाद शिबू सोरेन हजारीबाग में रहने वाले फारवर्ड ब्लॉक नेता लाल केदार नाथ सिन्हा के संपर्क में आये। कुछ दिनों तक छोटी-मोटी ठेकेदारी का काम भी किया। पतरातू-बड़काकाना रेल लाइन निर्माण के दौरान उन्होंने कुली का काम भी मिला।
लेकिन उन्होंने यह काम छोड़ दिया। शिबू सोरेन ने सबसे पहले बड़दंगा पंचायत से मुखिया का चुनाव लड़ा, लेकिन हार गये। बाद में जरीडीह विधानसभा सीट से भी चुनाव लड़े, लेकिन इसमें भी सफलता नहीं मिली।
शिबू सोरेन कैसे बने दिशोम गुरु
शिबू सोरेन की बायोग्राफी लिखने वाले झारखंड के वरिष्ठ पत्रकार अनुज सिन्हा ने अपनी किताब में लिखा कि पिता की हत्या के बाद शिबू सोरेन ने पढ़ाई छोड़ दी और महजनों के खिलाफ आवाज उठाने की सोची। उन्होंने आदिवासी समाज के एकजुट किया और महाजनों के खिलाफ बिगुल फूंका। तब उन्होंने धनकटनी आंदोलन शुरू किया। जिसमें वे और उनके साथी जबरन महजनों की धान काटकर ले जाया करते थे।
कहा जाता है कि उस समय में जिस खेत में धान काटना होता था उसके चारों ओर आदिवासी युवा तीर धनुष लेकर खड़े हो जाते थे। धीरे धीरे उनका प्रभाव बढ़ने लगा था। आदिवासी समाज के लोगों में इस नवयुवक के चेहरे पर अपना नेता दिखाई देने लगा था, जो उन्हें सूदखोरों से आजादी दिला सकते थे।
इसी आदोलन के दौरान शिबू सोरेन को दिशोम गुरु की उपाधि मिली। संताली में दिशोम गुरु का मतलब होता है देश का गुरु। बाद में बिनोद बिहारी महतो और एके राय भी आंदोलन से जुड़ते गये। बाद में उन्हें अपनी राजनीतिक पार्टी की जरूरत महसूस हुई।
साल 1980: दुमका से शिबू सोरेन ने लड़ा लोकसभा चुनाव
1980 के दशक में शिबू सोरेन झारखंड की राजनीति के जाने-पहचाने नाम हो चुके थे। 1980 के लोकसभा चुनाव में वो दुमका से तीर-धनुष चुनाव चिह्न लेकर मैदान में उतरे। बिहार से अलग झारखंड को राज्य बनाने की माँग के साथ शिबू सोरेन ने पार्टी कार्यकर्ताओं ने दिशोम दाड़ी चंदा उठाने का अभियान शुरू किया। जिसके तहत उन्होंने प्रत्येक गाँव के प्रति परिवार से एक पाव (250 ग्राम) चावल और तीन रुपया नगद राशि देने की माँग की।
दुमका से 8 बार सांसद बने शिबू सोरेन
इस अभियान से जमा हुए पैसों से शिबू सोरेन से चुनाव लड़ा और जीता। लोकसभा चुनाव जीतने के बाद शिबू सोरेन ने दूमका से चुनाव जीतने का कीर्तिमान ही बना दिया। शिबू सोरेन ने 1980, 1989, 1991, 1996, 2002, 2004, 2009 और 2014 में दुमका लोकसभा सीट के लिए चुनावी जीत हासिल की।
केंद्र में मंत्री भी रहे, जेल जाने पर सीएम की कुर्सी छोड़नी पड़ी
इसके अलावा को तीन बार राज्यसभा के लिए भी चुने गये। केंद्र सरकार में मंत्री भी रहे। 2 मार्च 2005 को शिबू सोरेन पहली बार झारखंड के सीएम बने, लेकिन 11 मार्च 2005 को उन्हें त्यागपत्र देना पड़ा। पहली बार मुख्यमंत्री बनने के बाद शशिनाथ हत्याकांड में नाम आने पर उनकी मुश्किलें बढ़ी।
2009 में तीसरी बार सीएम बने
वो इस मामले में जेल भी गये और फिर ऊपरी अदालत से दोषमुक्त हुए। जिसके बाद 27 अगस्त 2008 को दूसरी बार मुख्यमंत्री बने। लेकिन तमाड़ विधानसभा चुनाव में हार के कारण 11 जनवरी 2009 को सीएम पद से इस्तीफा देना पड़ा। इसके बाद वर्ष 2009, दिसंबर में तीसरी बाद सीएम बने, लेकिन कुछ ही दिनों में त्यागपत्र देना पड़ा।
हर हार को शिबू सोरेन ने जीत में बदल दिया
शिबू सोरेन हारते रहे, लड़खड़ाते रहे, लेकिन झारखंडियों के प्रति उनकी मेहनत कभी कम नहीं हुई। जेएमएम का झंडा उन्होंने कभी झुकने नहीं दिया। साल 2010 के बाद शिबू सोरेन की सक्रियता कम होती गई लेकिन उनके द्वारा बनाया गया जेएमएम अब गांव से लेकर शहर तक अपना पांव फैला चुका है।
शिबू सोरेन की पार्टी झारखंड की सबसे बड़ी पार्टी है। जिस दिन वो दुनिया से गए हैं उस दिन झारखंड में लगातार दुसरी बार जेएमएम मजबूत बहुमत के साथ सत्ता में है। शिबू सोरेन एक ऐसे नेता थे जो लड़ा भी, गिरा भी लेकिन अंत में जीतकर चला गया। उनका जाना एक युग का अंत है, लेकिन उनकी राह आने वाली पीढ़ियों के लिए रोशनी का रास्ता बन चुकी है।
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