रवीश कुमार की ‘बोलना ही है’ ज्वलंत सवालों की किताब

मूकनायक मीडिया ब्यूरो | 05 जुलाई 2024 | जयपुर : रवीश कुमार की किताब ‘बोलना ही है’ पर यह लंबी टिप्पणी लिखी है संजय कुमार ने। आप रवीश को ट्रोल कर सकते हैं। आप रवीश को मोदी विरोधी कह सकते हैं। आप रवीश को देशद्रोही कहे सकते हैं। आप रवीश को कांग्रेसी या विपक्षी पार्टियों का  दलाल कहे सकते हैं।

लेकिन सबसे अहम बात यह है कि रवीश के द्वारा उठाये गये सवालों से कैसे बच के निकल सकते हैं जो आज के समय में रवीश के द्वारा लगातार उठाये जा रहे हैं। एनडीटीवी चैनल के प्राइम टाइम शो के माध्यम से, और अब रवीश अपनी पुस्तक ‘बोलना ही है’ के माध्यम से ज्वलंत सवालों को उदाहरण सहित क्रमबद्ध तरीके से जनता के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं।

‘बोलना ही है’ – पुस्तक समीक्षा 

किताब एक ऐसा माध्यम है जिसके माध्यम से आप अपनी बात को सही तरीके से रख सकते हैं। हिस्ट्री  के छात्र होने के कारण भी रवीश किताब लेखन की अहमियत को अच्छे समझते हैं बहुत सारी किताबों ने देश और दुनिया के इतिहास की दिशा को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।

रवीश की पुस्तक भी आने वाले समय में सोशल साइंस तथा वर्तमान राजनीतिक दौर के घटनाक्रमों को समझने में महत्वपूर्ण दस्तावेज का काम करेगी। रवीश का लेखन भारत की वर्तमान लोकतांत्रिक प्रणाली, राजनीतिक व्यवस्था, राजनीतिक दलों के क्रियाकलाप और सरकारों के कार्यों पर प्रश्न चिन्ह लगाने का काम कर रहा है।

पुस्तक के माध्यम से रवीश यह सवाल भी पैदा कर रहे हैं कि क्या देश संविधान के आधार स्तंभों के आधार पर चलाया जा रहा है या नहीं, आजादी के आंदोलन के दौरान जिसको स्थापित किया गया था भारत की पत्रकारिता के उन उच्च मानकों को किस प्रकार एक एक करके तार तार किया जा रहा है।

दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों में पत्रकारिता के पेशे को आज भी लोकतंत्र का प्रहरी के तौर पर माना जाता है। लेकिन क्या अब भारत में पत्रकारिता और पत्रकार टीवी चैनल और न्यूज़ पेपर में आज जिस तरह से काम कर रहे हैं क्या इसी का नाम लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है,  मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ इसी कारण से कहा जाता था कि वह सरकार और व्यवस्था की खुलकर आलोचना और उसकी कमियों को उजागर करना का काम दिन रात करता रहता है।

क्या लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा का काम वर्तमान में भारतीय मीडिया कर रहा है या मात्र सरकार के प्रवक्ता या राजनीतिक दलों के आईटी सेल के दिये हुए या बनाये हुए कार्यक्रम को दिन रात प्रसारित कर रहे हैं ताकि जनता की सही आवाज और  विपक्ष की आवाज को भी खत्म किया जा सके।

एक लंबी लिस्ट सवालों की बनाने का प्रयास किताब की समीक्षा के दौरान किया जा रहा है जिसको रवीश ने अपने आवाज और लेखनी के माध्यम से उठाया है, किताब वर्तमान में भारत के राजनीतिक व्यवस्था में आई दरारों, कमियों और पत्रकारिता के गिरते स्तर को उदाहरण सहित व्याख्या करके बताने में अपनी किताब में काफी हद तक कामयाब हुए हैं।

सवाल-1 मॉब लिंचिंग पर

पुस्तक की भूमिका में ही मॉब लिंचिंग के संदर्भ में कहा गया है कि हम जिस लिंचिंग के खतरों की बात करते हैं वह कुछ लोगों के लिए सामान्य कार्य हो चुका है किसी से असहमति होने पर उसकी लिंचिंग करने का ख्याल आना अब आम बात की तरह है ।

सवाल-2 आजकल की भीड़

जो यह भीड़ है महज शब्द नहीं है इसमें बहुत से लोग हैं मरने वाले, मरते हुए देख कर चुप रहने वाले और अपने मोबाइल फ़ोन से वीडियो बनाने वाले आवारा भीड़ का निर्माण तीव्र गति से चल रहा है।

सवाल-3 मीडिया की जवाबदेही

पत्रकार और पत्रकारिता दोनों की जवाबदेही समाप्त हो चुकी है। बस शाम को टीवी पर आना है। दो वक्ताओं को बुलाकर आपस में लड़ा देना है और असली खबर को दबा देना है। अब यह कार्यक्रम विकराल और इतना व्यापक हो चुका है कि इसमें नैतिकता और अनैतिकता की बिंदु खोजने का कोई मतलब नहीं रहा है। न्यूज़ चैनलों ने भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों की हत्या करने में जो मेहनत की है उसी का नतीजा है कि अब भारत के लोग उन चैनलों को बगैर किसी सवाल के देखते हैं।

लोकतंत्र के बड़े प्रतीक मीडिया में विपक्ष को क्यों गायब किया जा रहा है। प्रेस की गुणवत्ता अब एक ही मानक है कि वह सत्ता पक्ष का गुणगान कितना अच्छा करता है। 2019 के चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री मोदी के इंटरव्यू गुणगान के लिए देखे जाने चाहिए गुणवत्ता के लिए नहीं, प्रेस का प्रोपेगंडा तंत्र में बदल जाना भारत की लोकतांत्रिक यात्रा का  सहज हिस्सा है।

ऐसा सिर्फ सरकार की वजह से नहीं हुआ है दर्शकों और पाठकों की भी वजह से हुआ है। तभी तो चैनल या अखबार जितना दरबारी है वह रेटिंग  की होड़ में उतने ही बेहतर नंबर पर हैं।

सवाल-5  खराब शिक्षा व्यवस्था का नतीजा और प्रभाव

 NACC  की रेटिंग में 68% यूनिवर्सिटी  औसत या औसत से भी खराब है। 91% कॉलेज औसत  या औसत से भी नीचे  है, इन खराब कॉलेजों ने कितनी मेहनत से छात्र और छात्राओं की कई पीढ़ियों को औसत या औसत से नीचे तैयार किया होगा। जानने, पढ़ने, और समझने की हर बेचैनी को खत्म किया होगा।

लोकतंत्र उन आदर्श लोगों के दम पर जिंदा और मजबूत रहता है जो दुनिया को बेहतर ढंग से समझने को उत्सुक रहते हैं जो सवाल करते हैं, तो क्या हम उन छात्र-छात्राओं से लोकतांत्रिक उच्चतम आदर्शों की उम्मीदें कर सकते हैं जिनको एक औसत दर्जे की शिक्षा व्यवस्था ने शिक्षा दी है इन पर पहले अज्ञानता का भार लादा गया और अब सांप्रदायिकता का चश्मा पहना दिया गया है।

सवाल-6  खुल कर बोलना

बोलने के लिए जानना  पड़ता है तब जानने की हर कोशिश नाकाम कर दी जाए या जानकारी कम कर दी जाए तो बोलने का अभ्यास अपने आप कम हो जाता है। न्यूज़ चैनल और अखबारों में मेहनत से खोज कर लाई गयी खबरें गायब होती चली गयी।

अब तमाम मीडिया तंत्र के जरिए जो जानकारी आप तक पहुंच रही है वह आपके बोलने की क्षमता को सीमित कर रही है। मां-बाप बच्चों को ज्यादा बोलने और लिखने से मना कर रहे हैं, अध्यापक अपने विद्यार्थियों को सिर्फ पढ़ने और राजनीति दूर रहने की सलाह दे रहे हैं ,सारा समाज मिलकर भारत के महान लोकतंत्र को दब्बू बनाने में लगा है। सेंसरशिप की बात कहाँ नहीं है।

अब सवाल करने वालों पर आईटी सेल की ट्रोल आर्मी ने जोरदार हमला बोला दिया है उन्हें देश विरोधी- धर्म विरोधी से लेकर विरोधी दलों का दलाल तक कहा जाने लगा,  व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी ने कई पत्रकारों की विश्वसनीयता को संदिग्ध बनाने की कोशिश की है।

बोलने की आजादी को लेकर अपनी तरह की इस नई व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी ने अपना एक नया बेंच मार्क तय किया है। तब क्यों नहीं बोले और अब ही क्यों बोल रहे हो तथा हर मुद्दे पर तब कहाँ थे जब वह हुआ था।

सवाल-7  सोशल मीडिया का दुरुपयोग

2014 के बाद से सोशल मीडिया के द्वारा 10- 12 पत्रकार, लेखक और अभिनेताओं को टारगेट किया गया, इस खेल के जरिए जनता के एक बड़े वर्ग को डरा दिया गया, जनता को यह डर सताने लगा कि जब बड़े बड़े लोगों की ऐसी हालत हो सकती है तो आम आदमी की क्या बिसात, जनता के हिस्से ने भीड़ का वह डर खरीद लिया।

आईटी सेल ने अपनी आक्रामकता के सहारे ड़र बिठाने का यह काम बहुत बारीकी से किया, आईटी सेल की भाषा सरकार के मंत्री की भाषा हो गयी और सरकार के समर्थक लोग की भी। लगता है मेनस्ट्रीम मीडिया और सोशल मीडिया ने डर की फ्रेंचाइजी ले रखी है जहाँ कोई सरकार के बारे में आलोचनात्मक  बोलता है सोशल मीडिया से हमला होने लगता है व्हाट्सएप पर। घेरकर मार दिये जाने की धमकी से लेकर फोन नंबर पब्लिक कर गाली दिलवाने की धमकी तक का ऐलान यह सब एक आदमी को डराने के लिए काफी है।

सवाल -8  अल्पसंख्यक समुदाय पर प्रभाव

मुसलमानों  को किस हद तक यह महसूस कराया जा रहा है कि राजनीतिक रूप से वह कितने अप्रासंगिक हो चुके हैं इस समझना  अब कोई  रहस्यमय  बात नहीं है। अधिकांश मुस्लिम अभी महसूस करते हैं कि अगर वह अपनी माँगों को लेकर सड़कों पर उतरेंगे तो मीडिया केवल उनकी दाढ़ी या उनकी शेरवानी दिखाएगी उनके मुद्दों की बात के बारे में बात नहीं करेगा। यह दरअसल अपने को दूसरे दर्जे के नागरिक के रूप में मान लेने की  विडंबना है।

सवाल-9  क्या बोलना जोखिम भरा काम हो गया है

यह सवाल आप खुद से कीजिए क्या आपको सरकार के बारे बोलते वक्त डर लगता है? क्या आप हिसाब करने लगते हैं कि किस हद तक बोला जाए ताकि सरकार और सोशल मीडिया की नाराजगी न झेलनी पड़े, क्या आपको लगता है कि आपको टारगेट किया जाएगा। भारत में झूठे मुकदमों में फंसाना सबसे आसान काम है। यह काम सरकारे भी करती है और संगठन के लोग भी करते हैं।

एक बड़ी आबादी के भीतर धर्म के प्रति कट्टर आस्था भर दी गयी है। कैसे धर्म के आधार पर किसी गलत को सही और सही को गलत की तरह देखा जा सकता है। क्या धर्म इतना अंधा हो गया है कि भीड़ को हिंसा की इजाजत देता है? भीड़ संविधान से ही बड़ी हो गयी है?

सवाल-10  फेक न्यूज़ के प्रभाव

उदाहरण के तौर पर 9 दिसंबर 2017 को गुजरात चुनाव के समय नरेंद्र मोदी के दिये गये भाषण में फेक न्यूज़ का जिक्र इस किताब में किया गया है किस प्रकार से मणिशंकर अय्यर के घर पर हुई रात्रि भोज को एक गुप्त मीटिंग का नाम देकर पाकिस्तान का गुजरात चुनाव में हस्तक्षेप की बात अपने भाषण में मोदीजी करते हैं।

जिसका उद्देश्य गुजरात चुनाव के असली मुद्दों से ध्यान भटकना  है, जब फेक न्यूज़ की चर्चा या जानकारी किसी बड़े पद के व्यक्ति के द्वारा की जाती है तो जनता इसको इसी प्रकार से मानती है कि कुछ तो है। यही बात है जो फेक न्यूज़ के लिए  ईंधन का काम करती है, फेक न्यूज़ ने पहले खबरों और पत्रकारिता को फेंक किया और अब वह जनता को फेक रूप तैयार कर रहा है।

फेक न्यूज़ के बहाने एक नए किस्म का सेंसरशिप आ रहा है। आलोचनात्मक चिंतन को दबाया जा रहा है। फेक न्यूज़ का एक बड़ा काम है नफरत फैलाना, फेक न्यूज़ के खतरनाक खेल में बड़े अखबार और टीवी चैनल शामिल हैं, लेकिन भारत में अब कुछ वेबसाइटों ने फेक न्यूज़ से लोहा लेना शुरू कर दिया है।

लेकिन यह सब बहुत छोटे पैमाने पर हो रहा है इसकी पहुंच मुख्यधारा के मीडिया के फैलाए फेक न्यूज़ की तुलना में बहुत सीमित है। मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री कैबिनेट मिनिस्टर का विरोध या असहमति  दर्ज करने पर कितने ही पत्रकारों आम नागरिकों पर पुलिस केस और मानहानि केस दर्ज भारत में हो रहे हैं। इन्हीं सब तरीकों से नागरिक अधिकारों को कम करने या उनको खत्म करने की सुनियोजित तरीके से योजना सरकारों के द्वारा चल रही है।

सवाल- 11  भीड़ मत बनिए

पुस्तक में भीड़ और प्रोपेगेंडा का नतीजा बताया गया कि किस प्रकार से जर्मनी में हिटलर और उसकी नाजी पार्टी ने  भीड़ को और प्रोपेगंडा को इस प्रकार से तैयार कर दिया था। यह लोग खुद अपने आप से ही एक समय के बाद यहूदियों को मार रहे थे,  प्रोपेगंडा का एक ही काम है भीड़ का निर्माण करना ताकि खून भीड़ करें तो दाग भी उसी भीड़ के दामन पर आये। सरकार और महान नेता निर्दोष नज़र आये। भारत में सब हत्या करने वाली भीड़ को ही दोष दे रहे हैं, उस भीड़ को तैयार करने वाले प्रोपेगेंडा में किसी को दोष नजर नजर नहीं आता है।

भारत में अभी इन घटनाओं को इक्का-दुक्का रूप में ही पेश किया जा रहा है। जर्मनी में भी पहले चरण में यही हुआ जब तीसरा चरण आया तब उसका विकराल रूप नजर आया तब तक लोग छोटी-मोटी घटनाओं के प्रति सामान्य हो चुके थे, जो समाज इतिहास के जरूरी सबक भूल जाता है वह अपने भविष्य को खतरे में डालता है।

सवाल-12  मुद्दे से भटकाव के लिए नया एजेंडा

गोदी मीडिया ने मुद्दों से नागरिकों को दूर करने  के लिए एक नया नेशनल सिलेबस तैयार किया है। कभी खिचड़ी-बिरयानी, कभी ताजमहल -मंदिर, कभी नेहरू बेनाम पटेल या बोस बनाम नेहरू, कभी तीन तलाक, अकबर, औरंगजेब, शाहजहाँ, अशोक, टीपू सुल्तान रानी पद्मावती और सबसे ऊंची मूर्ति, हिंदू मुस्लिम, इन सब चीजों पर मीडिया रोज रात को चर्चा करता रहता है और चुनाव के समय इसमें दिन-रात चर्चा का केंद्र बना कर बैठ जाता है।

ऐसा लगता है कि पूरा देश की इतिहास की कक्षा में बैठा हुआ है और हम पहली बार इतिहास पढ़ रहे हैं। जो न्यूज़ एंकर और ट्रोल है वह हमारे  इतिहासकार है चाणक्य के नाम से आजकल  कुछ भी चल जाता है,  यहाँ मीडिया शो देख कर आपको ऐसा लगेगा कि इतिहास से जोड़ा जा रहा है आपको, लेकिन नहीं, बहुत चालाकी से आपको इतिहास से काटा जा रहा है।

आपको इतिहासविहीन बनाया जा रहा है। सच्चे हिन्दू की दुहाई देकर हम सब में एक बदले की भावना भरी जा रही है इतिहास की ज्यादती का  बदला आज लेना है।  रवीश का पुस्तक में कहना है कि इस नेशनल टॉपिक से खुद को बचा लीजिए। इसकी थीम बहुत घातक है।

सवाल 13 अंधविश्वास और बाबाओं का धंधा

बाबाओं के पास हर समस्या का समाधान है और देशभर के न्यूज़ चैनल सिर्फ एनडीटीवी को छोड़कर इस समाधान को बहुत बेहतरीन तरीके से प्रस्तुत करते रहते हैं। दिन रात, कुछ तो बाबाओं के अपने भी चैनल अब स्थापित हो चुके हैं। हिंदी बोलने वाला बाबा राशिफल कुंडली भाग्य अन्य समस्याओं का निदान करता है, जो बाबा इंग्लिश बोलने में एक्सपर्ट होते हैं वह अभी स्ट्रेस मैनेजमेंट का कोर्स करवाते हैं। बड़े-बड़े ऑफिसों, राजनीतिक रसूखदार लोगों, शासन प्रशासक लोगों में बड़ी डिमांड रहती है।

देश का राजनीतिक वर्ग अंधविश्वास का सबसे बड़ा संरक्षक है। बाबा लोग टीवी चैनलों पर हर तरह की समस्याओं पर बात कर रहे हैं, जैसे कब लड़का लड़की को प्रपोज करना चाहिए, सिजेरियन कब कराना चाहिए, ऑफिस में प्रमोशन का उचित समय क्या रहेगा, बिजनेस प्लान कब शुरू करना चाहिए, मुकदमा कब करना चाहिए- इन सब बातों को देखकर ऐसा लग रहा है कि बाबाओं और ज्योतिषी का हर दिन भारत की अलग-अलग समस्याओं के क्षेत्र में अपना विस्तार कर रहे हैं।  दिल पर मत लीजिए, यही हिंदुस्तान है। यही हम और आप है

सवाल-14  भारत में इश्क करना और उसकी चुनौतियाँ

भारत में इश्क करना अनगिनत सामाजिक धार्मिक धारणा से जंग लड़ना होता है।  मोहब्बत हमारे घरों के भीतर प्रतिबंधित विषय है। हम सबके जीवन में प्रेम की कल्पना फिल्मों से आती है। फिल्में हमारी दीवानगी की शिल्पकार है। हमारे शहरों में प्रेम की कोई जगह नहीं है।

प्रेम के दो पल के लिए रोज हजार पलों की यह लड़ाई आपको प्रेमी से ज्यादा एक्टिविस्ट बना देती है। इश्क हमें इंसान बनाता है, जिम्मेदार बनाता है। इश्क हमें थोड़ा कमजोर, थोड़ा संकोची बनाता है। एक बेहतर इंसान में यह कमजोरियाँ न हो तो वह शैतान बन जाता है।

प्रेम करने की सजा के तौर पर 2016 में दिल्ली के अंकित की हत्या धर्म के कारण और कोयंबटूर में  शंकर की हत्या दलित जाति के कारण की गयी। और इन सभी हत्या पर एक खास प्रकार की राजनीतिक मानसिकता का समर्थन मिलने से हत्या करने वाले को किसी प्रकार का पश्चाताप भी नहीं हो पा रहा है।

सवाल -15  प्राइवेसी के अधिकार और उस पर हो रहे हमले

नौ न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने अगस्त 2017 में प्राइवेसी को मौलिक अधिकार बताया,  सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सरकार नीतियों की समीक्षा उस पर सवाल करना, उससे ऐसा असहमत होना इन सभी अधिकारों को भी संरक्षण प्राप्त है।

संविधान पीठ ने कहा कि यह सब करने से लोकतंत्र में एक नागरिक सक्षम बनता है और वह अपना राजनीतिक चुनाव बेहतर तरीके से कर पाता है। अनुच्छेद 19 ओर 21 से ही प्राइवेसी के अधिकार की खुशबू आती है। कानून विशेषज्ञ फैजान मुस्तफा ने कहा कि ‘मौलिक अधिकार का मतलब है जनता का सरकार पर अंकुश न कि सरकार का जनता पर अंकुश।’

रवीश की यह पुस्तक वर्तमान में देश के राजनीतिक सामाजिक आर्थिक सभी पक्षों पर सच्चाई को बयान करने  का एक साहसिक गंभीर प्रयास है, स्पष्ट तरीके से इन सब मुद्दों पर सोशल साइंटिस्ट भी वर्तमान में नहीं लिख पा रहे हैं और कुछ के द्वारा लिखा हुआ प्रयास भी वर्तमान में मात्र लाइब्रेरी या कुछ एकेडमिक लोगों के बीच में ही चर्चा का विषय बन के रह जाता है।

लेकिन रवीश की पुस्तक आमजन को आमजन की भाषा में ही समझाने का प्रयास है कि देश के सामने किस प्रकार के मुद्दे क्यों चलाये जा रहे हैं? उसके पीछे क्या रणनीति है? यह एक साजिश से सब  कुछ सुनियोजित तरीकों से किया जा रहा है और आम नागरिकों के अधिकारों पर किस प्रकार से हमला किया जा रहा है।

लोकतांत्रिक संस्थाओं को, लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को किस प्रकार से कमजोर किया जा रहा है और यदि यही सब चलता रहा तो जल्दी ही भारत की राजनीतिक व्यवस्था उसी दौर में चली जाएगी जिस दौर में आम नागरिक अपनी आवाज को कभी भी बुलंद नहीं कर पायेगा।

समीक्षक : संजय कुमार, ज़ाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज(सांध्य) , दिल्ली विश्वविद्यालय

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MOOKNAYAK MEDIA

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प्रकृति भगवान से बढ़ी – धार्मिक यात्राओं पर क्यों होते हैं हादसे

मूकनायक मीडिया ब्यूरो | 27 अगस्त 2025 | जयपुर – वैष्णोदेवी : जम्मू के कटरा स्थित वैष्णो देवी धाम के ट्रैक पर लैंडस्लाइड में मरने वालों का आंकड़ा बढ़कर बुधवार को 31 हो गया। हादसा मंगलवार को दोपहर 3 बजे पुराने ट्रैक पर अर्धकुमारी मंदिर से कुछ दूर इंद्रप्रस्थ भोजनालय के पास हुआ।

प्रकृति भगवान से बढ़ी – धार्मिक यात्राओं पर क्यों होते हैं हादसे

कल देर रात तक 7 लोगों के मरने की खबर थी, लेकिन सुबह आंकड़ा बढ़ गया। बड़े-बड़े पत्थर, पेड़ और मलबा में दबने से ज्यादा नुकसान। एक चश्मदीद ने बताया- बड़े-बड़े पत्थर अचानक गिरने लगे और सब तबाह हो गया।

अक्सर खबरों में सुनने और पढ़ने को मिलता है कि किसी पवित्र धाम के दर्शन करने जा रहे या वापस आ रहे लोगों का वाहन रास्ते में दुर्घटना का शिकार हो गया। जिसकी वजह से कई लोगों की मौतें हो जाती है। क्या आपने कभी गौर किया है अक्सर ऐसी दुर्घटनाएं पवित्र धाम के दर्शन करने के दौरान ही क्यों होती है।

प्रशासन का कहना है कि 23 से ज्यादा लोग जख्मी हैं। कई लापता हैं। मरने वालों की संख्या और बढ़ सकती है। फिलहाल, इस इलाके में भारी बारिश की वजह से वैष्णो देवी यात्रा स्थगित कर दी गई है। मंगलवार को जम्मू शहर में 24 घंटे से भी कम समय में 250 मिमी से ज्यादा बारिश हुई। इससे कई जगहों पर बाढ़ जैसे हालात हैं। घरों और खेतों में पानी भर गया है।

नॉर्दर्न रेलवे ने भी आज जम्मू-कटरा से चलने वाली और यहां रुकने वाली 22 ट्रेनें रद्द की हैं। इसके अलावा 27 ट्रेनों को शॉर्ट टर्मिनेट किया गया है। हालांकि, कटरा-श्रीनगर के बीच ट्रेन सर्विस जारी है।

लोगों की आपबीती: परिवार साथ था, पल में सब कुछ बिखर गया

  • एक श्रद्धालु ने बताया, ‘मैं और मेरा पूरा परिवार साथ जा रहे थे। मेरे बच्चे और पत्नी आगे निकल गए। फिर बहुत जोर से चट्टान गिरी। हमें कुछ समझ नहीं आया। अब मेरा बच्चों का कुछ पता नहीं चल रहा है। हम डरे हुए हैं। पल भर में हमारा सब कुछ बिखर गया।’
  • एक और व्यक्ति ने बताया, ‘मैं पीछे था। मेरे साथ आए 6 लोग मेरे आगे थे। आगे करीब 100 से ज्यादा लोग और भी थे। मैं अभी भी कांप रहा हूं। मेरे साथ आए लोगों का अभी तक कुछ पता नहीं चला।’
  • एक और महिला ने बताया, ‘हम माता रानी के दरबार में जा रहे थे। हमें कुछ समझ नहीं आया। मैं और मेरे पति तो बच गए पर मेरे तीनों बच्चे दब गए। सब कुछ तुरंत हो गया।’

पंजाब के मोहाली की रहने वाली किरण ने बताया, ‘मैं दर्शन करके पहाड़ से नीचे आ रही थी, तभी अचानक लोग चिल्लाने लगे। मैंने पत्थर गिरते हुए देखे। मैं किसी तरह सुरक्षित जगह की ओर भागी, लेकिन घायल हो गई।’ किरण के साथी एक और महिला ने बताया, ‘हम पांच लोग एक ग्रुप में थे, जिनमें से 3 घायल हैं।’

लैंडस्लाइड के बाद के हालात की 4 तस्वीरें…

रेस्क्यू टीम ने बुधवार को मलबे में दबे लोगों को बाहर निकाला।

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लैंडस्लाइड से मंगलवार को ट्रैक के टिनशेड गिरे, रेलिंग भी क्षतिग्रस्त हुई।

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पहाड़ से बड़े पत्थर गिरे, जिन्हें हटाने का काम बुधवार को भी किया गया।

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वैष्णो देवी यात्रा मार्ग पर काफी दूर तक लैंडस्लाइड का मलबा फैल गया।

वैष्णो देवी यात्रा मार्ग पर काफी दूर तक लैंडस्लाइड का मलबा फैल गया

जम्मू भारी बारिश से हालात खराब, 3500 लोगों का रेस्क्यू

जम्मू में मंगलवार को 11:30 से 5:30 बजे तक 6 घंटे में 22 सेमी बारिश हुई, जो अब तक की सबसे ज्यादा थी। आधी रात के बाद बारिश हुई। झेलम नदी का जलस्तर 22 फीट पार करने पर दक्षिण कश्मीर में बाढ़ अलर्ट जारी किया गया है। जम्मू शहर, आरएस पुरा, सांबा, अखनूर, नगरोटा, कठुआ, उधमपुर समेत कई इलाके बुरी तरह प्रभावित हैं। रियासी, रामबन, डोडा, कटरा, बनिहाल और आसपास हल्की बारिश जारी है।

राहत बचाव में जुटी एजेंसियों ने अभी तक सिर्फ जम्मू जिले में 3500 लोगों को सुरक्षित जगहों पर पहुंचाया है। पूरे जिले में बचाव शिविर और रिलीफ कैंप बनाए गए हैं। ज्यादातर बचाए गए लोगों को जम्मू के यूथ हॉस्टल में रखा गया है। सेना पूरे इलाके को तीन हिस्सों में बांट कर लोगों को बचा रही है। एक टीम आर्धकुमारी, एक टीम कटरा-ठक्कड़ कोट रोड और एक टीम जौरियन में काम कर रही है।

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गुलामगिरी : जातिवादी शोषण के ख़िलाफ़ क्रांति एवम् ब्राह्मणवाद पर प्रखर प्रहार का दस्तावेज़

मूकनायक मीडिया ब्यूरो | 11 नवंबर 2024 | जयपुर : आज भी देश के गाँवों में ऐसा माहौल है कि एक दलित किसी उच्च जाति के लोगों के ख़िलाफ़, बिना पिटने की संभावना के कुछ कहने की हिम्मत नहीं करता, न जाति आधारित सामाजिक नियमों से हटकर चलने की।

ब्राह्मणवादी समाज पर कुठाराघात, अछूतों को न्याय, स्त्री समानता और दलितों को शिक्षित करने जैसे विषय इस किताब में सम्मिलित है। गुलामगिरी में हिन्दू देवी-देवताओं को दलितविरोधी बताते हुए उनका खंडन हुआ है।

गुलामगिरी : जातिवादी शोषण के ख़िलाफ़ क्रांति एवम् ब्राह्मणवाद पर प्रखर प्रहार का दस्तावेज़

गुलामगिरी : जातिवादी शोषण के ख़िलाफ़ क्रांति एवम् ब्राह्मणवाद पर प्रखर प्रहार का दस्तावेज़

आये दिन खबरें पढ़ने को मिलती हैं कि एक दलित नौजवान को घोड़ी चढ़ कर गाँव में बारात नहीं निकालने दी गयी। या एक होनहार दलित लड़की का उच्च परीक्षा में पार होना, गाँव के बड़े लोगों को गवारा नहीं था, तो उसके घर वालों को गाँव से निकाल दिया। दलित महिलाओं को उच्च जाति के मर्दों की ज़्यादतियों से बचे रहने के लिए चौबीस घंटे नए पैंतरे सोचते रहना पड़ता है।

क्या होगा यदि हम गुलामी के इतिहास को एक दृष्टिकोण के रूप में उपयोग करें, जिससे आज हम न्याय की अपनी धारणा पर पुनर्विचार कर सकें? यह विचार कि दासता ने गुलाम लोगों को “अमानवीय” बना दिया, यह सुझाव देता है कि उनकी मानवता को बार-बार साबित करने की आवश्यकता है।

लेकिन इस सबके चलते हुए, देश में जगह-जगह, सदियों से चले आ रहे जातिगत शोषण को तोड़ने के लिए, समता और न्याय के सपने से प्रेरित बहुत से लोग और संगठन अपनी आवाज़ बुलंद कर रहे हैं। समता और न्याय जैसे शब्द हमारे सपने में शामिल हैं और आज हमारे पास, संविधान द्वारा दिये गए अधिकार के रूप में हैं – इस बात के पीछे लगभग डेढ़ सौ साल पहले, ज्योति राव फुले द्वारा लिखी गई पुस्तक, ‘गुलामगिरी’ का बड़ा हाथ है।

ब्राह्मणवादी जातिव्यवस्था से लड़ने का एक लंबा इतिहास है। इस संघर्ष का बीज बोने और फैलाने में, महान विचारक, समाज सेवक और क्रांतिकारी कार्यकर्ता श्री ज्योतिबा फुले और उनकी 1873 में लिखी ‘गुलामगिरी’ पुस्तक का बहुत बड़ी भूमिका है। उस समय जाति व्यवस्था के ख़िलाफ़ अपने बेबाक विचारों को पुस्तक के रूप में लिखना बहुत हिम्मत वाला काम था।

ज्योतिबा फुले व सावित्री फुले का नाम, अधिकतर दलितों और लड़कियों की शिक्षा के संदर्भ में लिया जाता है। यह सही भी है क्योंकि 1848 में पुणे में उन्होंने अछूतों के लिए पहला स्कूल खोला। 1857 में भारत का लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोला।

यह एक ऐसी किताब है जिसे अपने पाठक पाने में काफी समय लगा। समकालीन विमर्श में मानवाधिकारों का जो संस्करण हावी है, वह दासता के इतिहास से महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित नहीं है, यद्यपि यदि ऐसा होता तो बेहतर होता।

ऐसा करने के लिए इन दोनों को समाज से बहुत गालियां खानी पड़ीं। जान से मारने के प्रयास भी हुए। लेकिन शिक्षा का काम करने के पीछे उनकी मूल सोच, जाति के नाम पर एक बड़े तबके को गुलामी से मुक्त करवाना थी।

देश की असली संपत्ति बनाने वाले किसान, हर रोज पैसे नहीं कमा पाते। उनकी फसल साल में एक बार ही तैयार होती है, जबकि वे साल भर उधार पर सामान खरीदते हैं। देश की पूरी बैंकिंग व्यवस्था मुख्य रूप से इसी उपज विरोधी बिल आंदोलन पर आधारित है।

धोंडिराव और ज्योतिराव नामक दो पात्रों के संवाद के रूप में लिखी इस पुस्तक में उन्होंने दासता के इतिहास और अपने देश में जातियों की उत्पत्ति की नई स्थापना पेश की। उनका मानना था कि उच्च वर्ण के लोगों ने, अपने श्रम कार्य करने के लिए कुछ लोगों को गुलाम बनाया और ये लोग बाद में शूद्र कहलाए।

यह एक जातिवादी षड्यंत्र का हिस्सा था। गुलामगिरी पुस्तक इस षड्यंत्र की कलाई खोलने वाली पहली पुस्तक थी। उन्होंने ब्राह्मणों और सामंतों के वर्चस्व को स्थापित करने वाले धार्मिक हिंदू ग्रंथों, अवतारों और देवताओं की कहानियों का तार्किक रूप से वैज्ञानिक विश्लेषण करते हुए खंडन किया।

साथ ही अंग्रेजों के कामकाज की भी जातिव्यवस्था के चश्मे से व्याख्या की। इस किताब के माध्यम से उन्होंने जाति व्यवस्था के झूठ को समझाया और दलितों को आत्मसम्मान से जीने के लिए प्रेरित किया। यह करने के लिए उन्होने तर्क का सहारा लेकर बहुत रोचक और सरल तरीके से बातों को समझाया न कि कल्पना व भावनाओं के माध्यम से।

आज के दौर में ‘गुलामगिरी’ का क्या महत्व है, स्वयं फुले ने ‘गुलामगिरी’ की भूमिका में लिखा है — ‘प्रत्येक व्यक्ति को आज़ाद होना चाहिए। यही उसकी बुनियादी आवश्यकता है। जब व्यक्ति आज़ाद होता है, तब उसे अपने विचारों को दूसरों के समक्ष स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त करने का अवसर मिलता है।’

इस किताब की एक और रोचक बात यह है कि फुले ने इसे उन अमरीकी लोगों को समर्पित किया है जिन्होंने अमरीका में गुलामी को खत्म करने का संघर्ष किया। इससे स्पष्ट है कि वे पूरे विश्व में चल रहे अन्याय, शोषण के खिलाफ संघर्षों से जुड़ाव महसूस करते थे। अन्याय के ख़िलाफ़ संघर्ष की उनकी सोच केवल हमारे देश के जातीय अन्याय तक सीमित नहीं थी। वे स्त्रियों पर होने वाले अन्याय, आर्थिक असमानता – प्रत्येक प्रकार के शोषण के विरुद्ध थे।

ज्योतिबा फूले की गुलामगिरी किताब ने अपने समय के सामाजिक-राजनैतिक आंदोलन को बहुत प्रभावित किया और आज भी करती है। उत्तर भारत के सामाजिक कार्यकर्ताओं में इसकी जानकारी बहुत कम है। यह सभी के लिए एक बहुत ही ज़रूरी किताब है, जो जातिवाद से लड़ने का तार्किक रास्ता दिखाती है।

जाति व्यावस्था के विषय में अपने विचारों को मजबूत करने के लिए इसे अवश्य पढ़ा जाना चाहिए। इस किताब को आप अपने मोबाइल में डाउनलोड अवश्य करें और जब भी समय मिले – कहीं जाते-आते या बैल-भैंस चराते हुए इसे ज़रूर पढ़ें।

जातिवादी, विभेदकारी और शोषणकारी व्यवस्था के ख़िलाफ़ आधुनिक भारत में पहली मुखर आवाज़ उठाने वाले थे- ज्योतिबा फूले। उन्होंने समाज में स्थापित ब्राह्मणवादी संरचना के हर तत्व के खिलाफ़ अपना विरोध दर्ज किया। इस बात की तस्दीक़ उनकी लिखी गई किताब ‘गुलामगिरी’ में होती है जिसमें उन्होंने धार्मिक और जातिवादी अवधारणा को अपने तर्कों से ग़लत सिद्ध कर दिया।

साथ ही समाज में यह स्थापित किया कि वे तमाम ग्रन्थ ईश्वर ने नहीं बल्कि उन मनुष्यों ने रचे, जिन्होंने संसाधनों पर कब्ज़ा करके मूल निवासियों को दास बना लिया है और यह सब कुछ उस शोषण को वैध घोषित करने और अपनी सत्ता की सर्वोच्चता बनाए रखने के लिए किया गया था।

उन्होंने ईश्वर पर सवाल दागते हुए कहा, ईश्वर अगर सबका स्वामी है तो भेदभाव क्यों करता है और पुरोहितों की सत्ता के ख़िलाफ़ कहा कि ईश्वर और भक्त के बीच दलाल का क्या काम है। यही कारण है कि फूले भारतीय सामाजिक व्यवस्था में जातिवादी शोषण के ख़िलाफ़ क्रांति के अग्रदूत माने जाते हैं।

गुलामगिरी : ब्राह्मणवाद पर प्रहार

सनातन परंपरा में ईश्वर के उद्धव और धरती पर उनके जीवन की गाथाएं प्रचलित हैं। ये तमाम ग्रन्थ ईश्वरीय अवतारों की बात करते हैं, जिन्होंने ‘राक्षसों’ और ‘अधर्मियों’ का संहार किया और ब्राह्मणों को भयमुक्त किया। इन ग्रन्थों में ब्राह्मण हमेशा सद्चरित, उदार और लोकहित की चिंता करने वाले बताए गए।

मनुस्मृति के पहले अध्याय में प्रकृति के निर्माण, चार युगों, पेशे और ब्राह्मणों की महानता का वर्णन है। इन सब के माध्यम से जनता के मन में वैचारिकी के आधार पर कब्ज़ा करने की कोशिश की गई। ये ‘नैरेटिव’ गढ़कर ब्राह्मणवादी सांस्कृतिक उपनिवेशवाद स्थापित किया गया।

अपनी किताब गुलामगिरी में ज्योतिबा फूले इन सारे नैरेटिव्स को ध्वस्त कर देते हैं। वह बताते हैं कि मत्स्य, कच्छप और वानर जैसे अवतारों की मनुष्यों से तुलना अवैज्ञानिक है। यह संभव ही नहीं है। न ही इनमें लेशमात्र भी सच्चाई है। ज्योतिबा फूले ने वर्णीय संरचना पर भी आघात किया और बताया कि यदि ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से पैदा हुए हैं तो क्या उनके मुख में योनि थी? क्या रजोधर्म के समय उनके मुख से रक्तस्राव होता था?

फूले बताते हैं कि ब्राह्मणों के ये ग्रन्थ भेदभावपूर्ण हैं क्योंकि इनमें भारत से इतर रहने वाले मनुष्यों जैसे अंग्रेजों के बारे में कोई विवरण नहीं है। यह समूची मानव जाति के बारे में कैसे नियम तय कर सकते हैं, अगर सबको स्वयं में शामिल ही नहीं कर सकते।

इन सभी तर्कों का कोई वैज्ञानिक काट उपलब्ध नहीं था, आज भी नहीं है लेकिन, फिर भी ब्राह्मणवादी भेदभाव मौजूद हैं। आज भी निचले स्तर के कामकाज जैसे सीवर आदि की सफ़ाई करने वाला शख्स दलित औ पिछड़ा ही होता है।

आज भी पितृसत्ता और महिला शोषण मौजूद है। दलितों के साथ भेदभाव के कितने ही उदाहरण रोज़ अखबारों में आते हैं, इसलिए फूले की यह क़िताब आज भी प्रासंगिक हैं। इसे पढ़ा जाना चाहिए ताकि इन शोषणों की अवैज्ञनिकता को खारिज़ किया जा सके।

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