राजस्थान उपचुनाव 7 में से 1 बीजेपी 4 कांग्रेस, आरएलपी-बीएपी को 1-1 सीट मिलने की संभावना

मूकनायक मीडिया ब्यूरो | 11 नवंबर 2024 | जयपुर : राजस्थान विधानसभा (Rajasthan By Election 2024 Ground Report; Dausa Jhunjhunu Ramgarh) की सात सीटों पर उपचुनाव के लिए प्रचार का सोमवार को आखिरी दिन है। बीजेपी ने प्रचार में अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। वहीं, दूसरी तरफ कांग्रेस के कई बड़े नेता भी मैदान में प्रचार कर रहे हैं।

राजस्थान उपचुनाव 7 में से 1 बीजेपी 4 कांग्रेस, आरएलपी-बीएपी को 1-1 सीट मिलने की संभावना

बीजेपी से आज सीएम भजनलाल शर्मा, प्रदेशाध्यक्ष मदन राठौड़ और पूर्व प्रदेशाध्यक्ष सीपी जोशी एक मंच पर दिखाई देंगे। तीनों चौरासी और सलूंबर में जनसभाओं को संबोधित करेंगे। इसके साथ ही बीजेपी की राष्ट्रीय मंत्री अलका गुर्जर दौसा और प्रदेश महामंत्री व विधायक जितेंद्र गोठवाल देवली-उनियारा सीट पर प्रचार करेंगे।

राजस्थान उपचुनाव ग्राउंड रिपोर्ट
राजस्थान उपचुनाव 7 में से 1 बीजेपी 4 कांग्रेस, आरएलपी-बीएपी को 1-1 सीट मिलने की संभावना

दूसरी ओर, प्रदेश कांग्रेस के दिग्गज नेता पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पूर्व उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट आज प्रदेश में प्रचार नहीं करेंगे। दोनों महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के लिए अलग-अलग जगह प्रचार करते हुए नजर आएंगे।

कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा जयपुर में हैं। उनका अभी किसी भी सीट पर प्रचार के लिए जाने का कार्यक्रम तय नहीं है। केवल नेता प्रतिपक्ष टीकाराम जूली रामगढ़ विधानसभा क्षेत्र में पार्टी के लिए प्रचार करेंगे। इन सात विधानसभा सीटों पर 13 नवंबर को वोटिंग होगी। 23 नवंबर को मतगणना होगी।

राजस्थान की उपचुनाव वाली 7 विधानसभा सीट कहां पर किसकी टक्कर 

राजस्थान की उपचुनाव वाली 7 सीटों में से महज 1 सीट पर बीजेपी को मिलने की संभावना है। 2023 के चुनाव में भी बीजेपी के खाते में सिर्फ सलूंबर सीट थी। अन्य की 6 सीटों में से 4 पर कांग्रेस के प्रत्याशी जितने ककी संभावना नजर आ रहीं है। जबकि एक सीट भारतीय आदिवासी पार्टी और 1 सीट पर राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी आरएलपी जीत सकती है। 2023 के विधानसभा चुनाव में शेखावाटी की झुंझुनू सीट, दौसा, देवली-उनियारा और रामगढ़ विधानसभा सीट पर कांग्रेस के एमएलए बने थे।

देवली उनियारा विधानसभा सीट

यहाँ से कांग्रेस विधायक हरीश मीणा अब सांसद बन चुके हैं। केसी मीणा कांग्रेस, और राजेंद्र गुर्जर बीजेपी के बीच कड़ा मुकाबला है।  निर्दलीय उम्मीदवार नरेश मीणा है जो बाहरी कैंडिडेट है, जिन्होंने मुकाबले को त्रिकोणीय बनाने की भरपूर कोशिश की है।

किंतु, लोकल उम्मीदवार की हवा में वे पिछड़ते नजर आ रहे हैं। आख़िरकार लोकल मुद्दा हावी रहा है और अब मुख्य मुकाबला केसी मीणा और राजेंद्र गुर्जर के बीच ही है। नरेश मीणा केवल केसी मीणा की जीत के अंतर को कम कर सकते हैं, वे मुकाबले से बाहर हो चुके हैं।

जातिगत समीकरणों की दृष्टि से एससी, एसटी, ओबीसी (जाट) और अल्पसंख्यक वोटरों का झुकाव कांग्रेस की तरफ है। वहीं, गुर्जर मतदाताओं के अलावा हिंदुत्व के नाम पर सवर्ण और कुछ ओबीसी जातियों के वोट बीजेपी को मिल सकते हैं। पर मुख्यमंत्री भजनलाल की देवली में हुई फ्लॉप सभा के बाद इसकी भी उम्मीद कम है। केसी मीणा बढ़त में लग रहे हैं।

दौसा विधानसभा सीट

कांग्रेस विधायक मुरारीलाल मीणा अब सांसद बन चुके हैं। दीनदयाल बैरवा (डीसी) कांग्रेस और जगमोहन मीणा बीजेपी के बीच कांटे की टक्कर हो रही है। सांसद मुरारी लाल मीणा और विधायक (मंत्रीमंडल से स्तीफा दे चुके) किरोड़ी लाल मीणा के राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई सातवें आसमान पर है।

साथ ही, पायलेट पायलेट की साख भी दाव पर है। बीजेपी में भितरघात की खबरें हैं। डॉ किरोड़ी ने मीणा समुदाय को लामबंद करने के लिए एडी-चोटी का जोर लगा रखा है। किंतु, बीजेपी सवर्ण वोटों के भीतरघात, मीणाओं के वोटों में आरक्षण वर्गीकरण को लेकर डॉ किरोड़ी के बयान, और एससी-एसटी वोटों में सामंजस्यपूर्ण माहोल के कारण जगमोहन की राह मुश्किल लग रही है। कांग्रेस में बढ़त बनाये हुए हैं। 

झुंझुनूं विधानसभा सीट

कांग्रेस विधायक बृजेंद्र ओला अब सांसद बन चुके हैं। झुंझुनूं सीट हाल ही में बृजेन्द्र ओला के सांसद बनाने से खाली हो गई थी। कांग्रेस को यहाँ काफी बढ़त है। पर, झुंझुनूं में विधानसभा सीट के उपचुनाव को लेकर सियासी पारा बढ़ा हुआ है।

इस सीट पर उपचुनाव (Jhunjhunu UPChunav 2024) हो रहे उपचुनाव में बीजेपी के लिए चुनाव जीतना बेहद मुश्किल माना जा रहा है। राज्य में और केंद्र में NDA की सरकार होने का बीजेपी को फायदा बमुश्किल ही मिल सकता है। कांग्रेस बढ़त में है।

चौरासी विधानसभा सीट

BAP विधायक राजकुमार रोत अब सांसद बन चुके हैं। चौरासी सीट पर मुकाबला त्रिकोणीय हो गया है दोनों प्रमुख पार्टियों ने इस सीट पर अपना पूरा जोर लगा दिया है। राजस्थान के आदिवासी इलाके चौरासी उपचुनाव में कांग्रेस और बीजेपी के लिए अब अपना गढ़ बचाने का चुनाव हो गया है।

BAP पार्टी का सबसे बड़ा मुद्दा भील प्रदेश बनाने का है तो बीजेपी का हिंदुत्व और आदिवासी कल्याण का है। वहीं, कांग्रेस अतीत के अपने परंपरागत आदिवासी वोटों के जड़ की तलाश में है। कांग्रेस के कमजोर होने की वजह से BAP मजबूत होती चली गई।

यहां आदिवासी बहुल सीट है। इधर आदिवासी वोटरों की संख्या सबसे अधिक करीब 75 फीसदी है। यहां चुनाव का सारा दारोमदार आदिवासी मतदाता पर है। बाप बढ़त में है।

 खींवसर विधानसभा सीट

RLP  विधायक हनुमान बेनीवाल अब सांसद बन चुके हैं। लेकिन लेकिन विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस ने हनुमान बेनीवाल की जगह खाली हुई सीट पर अपना प्रत्याशी उतारा है। पहले से ही बीजेपी ने इस सीट पर बेनीवाल की मुश्किलें बढ़ा रखी थीं। अब कांग्रेस के इस दांव ने बेनीवाल को सबसे ज्यादा चोट पहुंचाई है।

हनुमान बेनीवाल ने साल 2008 में खींवसर विधानसभा सीट से बीजेपी के टिकट पर जोरदार जीत हासिल की थी। नागौर में राजनीति के जानकार बताते हैं कि इसी चुनाव से हनुमान बेनीवाल को यहां अपनी जीत का फॉर्मूला मिल गया था। आरएलपी बढ़त में है।

सलूंबर विधानसभा सीट

बीजेपी विधायक अमृतलाल मीणा का निधन हो चुका है। लोग क्षेत्र के विकास के लिए सत्ता के साथ रहना पसंद कर रहे हैं। वहीं क्षेत्र में पानी, सड़क और आदिवासियों के लिए जल, जंगल, जमीन का मुद्दा हावी है। सलूंबर में सत्ता की चाभी किसके हाथ होगी, इसका फैसला तो आगामी 29 नवंबर के परिणामों से ही होगा।

लेकिन फिलहाल जनता की उम्मीदें और मुद्दे इस उपचुनाव को और भी अहम बना रहे हैं। कांग्रेस और बाप द्वारा साथ चुनाव न लड़कर अलग-अलग प्रत्याशियों को चुनावी मैदान में खड़ा करना, दोनों ही पार्टियों के वोटों पर प्रभाव डालेगा। वहीं बीजेपी के परंपरागत वोटों में कोई खास बदलाव नजर नहीं आ रहा। 13 नवंबर मतदान के साथ ही सलूंबर की जनता इसका फैसला करेगी। बीजेपी बढ़त में है।  

रामगढ़ विधानसभा सीट

कांग्रेस विधायक जुबेर खान का निधन हो चुका है। हरियाणा से सटी रामगढ़ सीट पर कांग्रेस-बीजेपी के बीच सीधा मुकाबला है। यहां आतंरिक तौर पर ‘बंटोगे तो कटोगे’ नारे से धार्मिक गोलबंदी का प्रयास किया जा रहा है। किंतु, इसका फायदा भाजपा को मिलता नजर नहीं आ रहा है।

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रामगढ़ उपचुनाव को लेकर 13 नवंबर को वोट डाले जाएंगे। इसी बीच यहाँ से चुनाव लड़ रहीं आजाद समाज पार्टी की उम्मीदवार सुमन मजोका ने भरे मंच से बीजेपी कंडिडेट को अपना समर्थन दे दिया है। इससे दलित मतदाताओं में रोष व्याप्त है और इसका फ़ायदा कांग्रेस को मिल सकता है। कांग्रेस बढ़त में है।

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डूँगरी बाँध और डीएमआईसी भूमि-हड़प अभियान

मूकनायक मीडिया ब्यूरो | 03 अगस्त 2025 | दिल्ली : शायद यह सिर्फ एक संयोग हो, या शायद नियति और न्याय की कोई  ज्यादा उलझी हुई पहेली। देश की कुल आबादी में मात्र 9 प्रतिशत हिस्सा आदिवासियों का है, लेकिन वन और खनिज संपदा का ज्यादातर  उखड़े हुए टूटी हुई हिस्सेदारी उनकी रिहाइश वाले इलाकों में ही मौजूद है। बिजली और खनन से जुड़ी देश की 40 प्रतिशत विकास परियोजनाएं भी इन्हीं इलाकों में चल रही हैं। विकास यहाँ किसी अंधड़ या चक्रवात की तरह आता है, जिसमें रातों-रात गाँव के गाँव उजड़ जाते हैं।

डीएमआईसी के तहत डूँगरी बाँध ऐसे ही एक अन्य भूमि-हड़प अभियान का हिस्सा बनने जा रहा है। आर्य और द्रविड़ सभ्यताओं की शुरुआत के भी हजारों साल पहले से सैंधव लोग यहाँ रहते आ रहे हैं। पीड़ित  लोग बुलडोजरों और अर्थमूवरों की गड़गड़ाहट सुनते अपने-अपने मवेशी लिये बंजारों की तरह नया ठौर तलाशने निकलने को मजबूर हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत चुनावों में वे जिन नेताओं को वोट देते आयें हैं, उनमें से अधिकाँश मुँह फ़ेर चुके हैं या उनके मुँह में दही जम चुका है।

गाँवों में डीएलसी दरें कम है। भूमि अवाप्त कर मुआवजा राशि डीएलसी दर से दी जायेगी। काश्तकारों की भूमि अवाप्त की जा रही है तो बाजार मूल्य से मुआवजा राशि मिलनी चाहिए। दिल्ली-मुंबई इंडस्ट्रियल कॉरिडोर (डीएमआईसी) को केंद्रीय वाणिज्य व उद्योग मंत्रालय ने नेशनल इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट एंड इम्प्लेंटेशन ट्रस्ट (एनआईसीडीआईटी) का दर्जा दे दिया है। अब यह ट्रस्ट विभिन्न राज्यों से आने वाले इंडस्ट्रियल कॉरिडोर के प्रस्ताव को फंडिंग, जमीन अधिग्रहण में मदद और उसे एप्रूव करने संबंधी सभी काम करेगा।

डूँगरी बाँध के पहले चरण में करौली सवाई माधोपुर जिलों के 76 गाँवों की बारी है, पर यह सिलसिला यहाँ यूकने वाला कदापि नहीं है। जैसे-जैसे बाँध की ऊँचाई बढ़ेगी वैसे-वैसे इसकी जद में न जाने ऐसे कितने इलाके और आयेंगे। अभी से लोगों दिलोंदिमाग में ऐसे-ऐसे मंजर दिखने लगे हैं मानो उनकी आँखें उस मायावी सपने को को देखने के लिए तैयार ही नहीं है। यहाँ जाकर लगता ही नहीं कि यहाँ कभी लोग रहते रहे होंगे, उनके मांदलों की थाप और गीतों की हेक गूंजती होगी। कुतर्कों का एक दुष्चक्र अर्से से आदिवासी विस्थापन के मुद्दे को घेरे हुए है। क्या देश हाई वे के बगैर रह सकता है?  

अडानी-अंबानी, टाटा-बिड़ला के बगैर क्या यह तरक्की के रास्ते पर एक कदम भी आगे बढ़ा सकता है?  अगर नहीं तो आदिवासी हितों पर हंगामा करना भूलकर काम की बात कीजिए। जान कर आश्चर्य होता है कि इस तर्क की काट पहली बार भारत सरकार द्वारा गठित एक कमिटी ने की है। पिछली यूपीए सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय की पहल पर बनी इस कमिटी की रिपोर्ट कहती है कि भारत में आदिवासी जमीनों पर देसी-विदेशी कंपनियों के कब्जे की मौजूदा लहर कोलंबस के बाद संसार के सबसे बड़े भूमि हड़प अभियान का रूप ले रही है।  

डीएमआईसी (दिल्ली-मुंबई औद्योगिक गलियारा) परियोजना का कुल क्षेत्रफल लगभग 436,000 वर्ग किलोमीटर है। यह गलियारा डीएफसी के दोनों तरफ 150-200 किलोमीटर की पट्टी में फैला हुआ है। निवेश क्षेत्रों का न्यूनतम क्षेत्रफल 200 वर्ग किलोमीटर और औद्योगिक क्षेत्रों का न्यूनतम क्षेत्रफल 100 वर्ग किलोमीटर होगा। इस परियोजना में 100 अरब डॉलर अर्थात 87,20,29,64,90,000/ रुपए का अनुमानित निवेश होगा। 

राजस्थान का इतिहास गौरवशाली रहा उसमें आदिवासी सर्वोपरि है। यहाँ के प्रकृति पुत्र आदिवासी इस धरा पर आदिमकाल से ही रहते आये है उनमें प्रमुख मीणा और भील है। खास तौर पर खनन और हाई वे के मामले में तो स्थिति जंगल राज जैसी है। डूँगरी बाँध पर हुई खोजबीन से पता चला है कि ज्यादातर कंपनियों को प्रतिवर्ष जितनी जमीन ख़रीदने की अनुमति दी गई थी, उसका चार से पांच गुना वे पिछले कई सालों से बेचती आ रही हैं और अब तक उनके खिलाफ कोई सरकारी नोटिस भी जारी नहीं हुआ है।

जाहिर है, डीएमआईसी के इलाकों में सरकारी जानकारी से भी कहीं ज्यादा विस्थापन हो रहा है और आगे यह भयावहता विकराल रूप धारण करेगी। केंद्र और राज्य सरकारों की चिंता कंपनियों को आदिवासियों की जमीन कोडियों के भाव बेचकर लाइसेंस देकर खत्म हो जाती है और लाइसेंस का कई गुना काम वे अफसरों को घूस खिला के कर लेती हैं। कानूनी तौर पर इन इलाकों में रहने वालों का न तो कोई हक अपने आस-पास की वन संपदा पर है, न ही अपने पैरों के नीचे पड़ी खनिज संपदा पर।

उनके हिस्से सिर्फ विनाश और विस्थापन आता है, और एक आत्मघाती गुस्सा, जो कभी माओवादियों के तो कभी मधु कोड़ा जैसे नेताओं के दरवाजे लाकर छोड़ जाता है। हाल के अपने एक बयान में प्रधानमंत्री ने भी आदिवासियों की तकलीफ से हामी भरी है। लेकिन वन और खनिज संपदा में अगर स्थानीय समुदायों की भागीदारी सुनिश्चित नहीं की जाती तो ऐसे सहानुभूतिपूर्ण बयानों का भी क्या फायदा है।

25 साल बाद भी बीसलपुर बांध परियोजना के विस्थापित को जमीन आवंटित क्यों नहीं की। बीसलपुर बांध के डूब क्षेत्र के विस्थापित पुनर्वास कॉलोनियों में सड़क जैसी बुनियादी सुविधा के लिए तरस रहे हैं। बीसलपुर बांध 18 साल पहले बन गया, विस्थापितों को सड़कों के नाम पर मिले गड्‌ढे। 30 से ज्यादा गाँवों के हजारों लोगों को डूब क्षेत्र से पुनर्वास कॉलोनियों में विस्थापित किया गया। हमारा कसूर इतना था कि बीसलपुर बांध के डूब क्षेत्र में हमारे गाँव और ढाणियां आ गए। अपना गाँव छूटा और विस्थापित हो गए।

आधे से ज्यादा राजस्थान को पानी पिलाने वाले विस्थापित खुद फ्लोराइड युक्त पानी पीने को मजबूर है। बीसलपुर परियोजना के कारण कुल 63 गॉव विस्थापित हुए है। जिसमें डूब से प्रभावित परिवारों की संख्या 5700 है एवम् जनसंख्या लगभग 30,000 है। डूब क्षेत्र की कुल भूमि 21836 हैक्टेयर है। अब बात करते हैं बीसलपुर परियोजना के विस्थापितों के दर्द की, तो बांध बनने के 23 साल बाद भी 118 पुर्नवास कॉलोनियों में से 6 कॉलोनियाँ अभी तक विकसित नहीं हुई हैं। पुर्नवास कॉलोनियों में सम्पर्क सड़क, आन्तरिक सड़के, हैण्ड पम्प, कुंआ, स्कूल, चिकित्सा भवन, बीज गोदाम, सामुदायिक भवन का आज भी अभाव है। यदि बन गये है तो उनकी हालत जीर्ण शीर्ण अवस्था में है।

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राजस्थान की 7 सीटों के उपचुनाव में हमेशा की तरह बैकफुट पर बीजेपी

मूकनायक मीडिया ब्यूरो | 22 नवंबर 2024 | दिल्ली : राजस्थान की 7 सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजे शनिवार को सामने आयेंगे। सियासी गलियारों में चर्चा है कि इस बार भी उपचुनाव में बीजेपी अपना इतिहास दोहरायेगी और जीत-हार की परंपरा बदल नहीं पायेगी।

राजस्थान की 7 सीटों के उपचुनाव के नतीजे बीजेपी बैकफुट पर

प्रदेश में हुए पिछले 16 उपचुनाव के नतीजों पर गौर करें तो ये परंपरा रही है कि – ‘बीजेपी उपचुनाव में हमेशा बैकफुट पर रहती है’ और ‘मतदान घटने पर कांग्रेस को फायदा होता है।’ इस बार 7 में से 6 सीट पर मुख्य चुनाव से वोटिंग घटी है। तो घटी हुई वोटिंग का बीजेपी को नुकसान होगा? 

राजस्थान की 7 सीटों के उपचुनाव में हमेशा की तरह बैकफुट पर बीजेपी

विधानसभा चुनाव की बजाय उप चुनाव में वोटिंग गिरी

उपचुनाव वाली 7 सीटों पर विधानसभा चुनाव, 2023 में कांग्रेस ने 4 और बीजेपी, आरएलपी व बीएपी ने 1-1 सीटों पर कब्जा जमाया था। इस बार हुए इन सीटों के मतदान प्रतिशत को देखें तो खींवसर सीट को छोड़ सभी पर मतदान के आंकड़े मुख्य चुनाव की तुलना में गिरे हुए हैं।

2013 से अब तक हुए उपचुनाव में इक्का-दुक्का उदाहरण छोड़ दें, तो मुख्य चुनाव के मुकाबले लगभग हर सीट पर वोटिंग प्रतिशत गिरा ही है। इसका सबसे बड़ा कारण है कि राजस्थान के उपचुनाव में एक बार भी सरकार के बनने-बिगड़ने जैसे समीकरण नहीं बने। यदि ऐसे समीकरण बनते हैं, तो वोटर्स में अलग ही उत्साह नजर आता है।

राजनीतिक एक्सपर्ट प्रोफ़ेसर राम लखन मीणा के अनुसार सरकार पर कोई फर्क नहीं पड़ने के कारण वोटर्स अमूमन सुस्त हो जाते हैं। ऐसा ही हाल 7 सीटों के मतदान में भी देखने को मिला है। केवल एक सीट खींवसर को छोड़ दें तो बाकी 6 सीटों पर मतदान प्रतिशत मुख्य चुनाव की तुलना में कम ही हुआ है।

उपचुनाव वाली मौजूदा सीटों पर मतदान के आंकड़े और उससे बन रहे समीकरण जान लेते हैं….

राजनीतिक एक्सपर्ट नारायण बारेठ के मुताबिक मुख्य चुनाव के मुकाबले 7 में से 6 सीटों पर कम वोटिंग हुई है। माना जाता है कि कम वोटिंग का फायदा कांग्रेस को मिलता है, लेकिन इस बार समीकरण इतने उलझे हुए हैं कि ये बात खरी उतरती नहीं दिख रही।

वहीं, वरिष्ठ राजनीतिक विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर मीणा ने मूकनायक मीडिया को बताया कि यह कहना भी मुश्किल है कि पिछले उप चुनाव के जैसे कांग्रेस इस उप चुनाव में भी एक तरफा प्रदर्शन करेगी। किंतु बीजेपी का प्रदर्शन इस उप चुनाव में सुधरने की संभावना नहीं है और कांग्रेस कुछ सीटें गंवा सकती है।

अब पिछले 11 साल में हुए 16 सीटों पर जानते हैं, उप चुनाव में किसका पलड़ा भारी रहा?

मुख्य चुनावों के आंकड़ों के आधार पर कहा जाता रहा है कि अगर उपचुनाव में वोटिंग परसेंटेज कम रहता है तो फायदा कांग्रेस को मिलता है और अधिक रहने पर बीजेपी को। यह पैटर्न राजस्थान के उपचुनावों में अब तक सटीक भी साबित हुआ है।

भास्कर ने 2013 से अब तक 16 सीटों के उपचुनाव में हुए मतदान का रिकॉर्ड खंगाला। सामने आया कि एक-दो सीटों को छोड़कर वोटिंग प्रतिशत गिरा ही है। पैटर्न के मुताबिक बीजेपी की सरकार होने के बावजूद कांग्रेस भारी पड़ी है। उपचुनावों में कांग्रेस ने 16 में से 11 सीटों पर जीत हासिल की है। बीजेपी ने मात्र 3 और बीएपी व आरएलपी ने 1-1 सीट जीती हैं।

अब एक नजर पिछली 16 सीटों पर उपचुनाव के नतीजों और वोटिंग पैटर्न के प्रभाव पर डालते हैं… जब सत्ता में थी बीजेपी, फिर भी उपचुनाव वाली 8 में से 6 सीटें हारी

2013 से 2024 के बीच 8 सीटों के उपचुनाव तब हुए जब बीजेपी सरकार सत्ता में थी। फिर भी बीजेपी 2 सीटें ही सीटें जीत पाई, कांग्रेस ने 5 पर कब्जा जमाया। मौजूदा बीजेपी सरकार में दो सीटों पर उपचुनाव पहले हो चुके हैं।

श्रीकरणपुर सीट पर कांग्रेस प्रत्याशी और तत्कालीन विधायक गुरमीत सिंह कुन्नर के निधन के कारण चुनाव स्थगित करना पड़ा था। यहां उपचुनाव हुआ तो कांग्रेस ने जीत दर्ज की थी। इसके अलावा बागीदौरा सीट पर भी बीजेपी को हार मिली। यहां कांग्रेस ने सीट गंवाई और बीएपी को जीत हासिल हुई।

इन 8 सीटों के चुनाव में केवल 2 बार अपवाद देखने को मिला। सूरजगढ़ सीट पर हुए 2014 के उपचुनाव में मुख्य चुनाव से अधिक मतदान हुआ, जो कांग्रेस के खाते में गई। वहीं, कोटा साउथ पर 2014 के उपचुनाव में मतदान गिरने के बावजूद बीजेपी ने जीत दर्ज की।

सत्ता में कांग्रेस (2018 से 2023) – उप चुनाव वाली 8 सीटें

कांग्रेस जब सत्ता में रही, उस दौरान हुए 8 सीटों पर उपचुनाव के नतीजे भी उसके पक्ष में आए। कांग्रेस ने 8 में से 6 पर जीत हासिल की। बीजेपी को एक और आरएलपी को 1 सीट मिली।

पिछले 9 उप चुनावों में वोटिंग पैटर्न से जो रिजल्ट आये, क्या इस बार वैसे ही रिजल्ट देखने को मिलेंगे?

एक्सपर्ट्स के अनुसार पिछले 9 उप चुनाव में कम वोटिंग का फायदा सीधे तौर पर कांग्रेस को मिला। इस बार 7 सीटों के उप चुनाव में 6 सीटों पर वोटिंग परसेंटेज गिरा है, लेकिन सीधा फायदा कांग्रेस को होगा, यह कहना मुश्किल है। इस बार समीकरण बहुत उलझे हुए हैं।

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आमतौर पर देखा गया है कि सत्ता में होने के बावजूद बीजेपी का उपचुनाव में प्रदर्शन काफी निराशाजनक रहा है। जबकि कांग्रेस ने सरकार होते हुए भी और विपक्ष में रहते हुए भी बीजेपी के मुकाबले अधिक सीटें जीती हैं। लेकिन इस बार संकेत कुछ अलग मिल रहे हैं। कम वोटिंग परसेंटेज से कांग्रेस को फायदा होने जैसी बातों पर इस उप चुनाव का रिजल्ट विराम लगा सकता है।

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