लक्ष्य सेन पेरिस ओलिंपिक के बैडमिंटन, भारत को मेडल दिलाने की इकलौती उम्मीद

मूकनायक मीडिया ब्यूरो | 04 अगस्त 2024 |  जयपुर : लक्ष्य सेन पेरिस ओलिंपिक के बैडमिंटन में भारत को मेडल दिलाने की इकलौती उम्मीद हैं। 22 साल के युवा शटलर ने मेंस सिंगल्स के सेमीफाइनल में जगह बनाई है। आज जीतते ही वह ओलिंपिक इतिहास में भारत को मेंस कैटेगरी का पहला बैडमिंटन मेडल दिला देंगे।

लक्ष्य सेन पेरिस ओलिंपिक के बैडमिंटन,भारत को मेडल दिलाने की इकलौती उम्मीद

लक्ष्य अपना पहला ही ओलिंपिक खेल रहे हैं। उनका सेमीफाइनल दोपहर 12 बजे से डेनमार्क के विक्टर एक्सलसेन के खिलाफ होगा। लक्ष्य का जन्म उत्तराखंड के अलमोड़ा में हुआ, उनके भाई, पिता और दादा भी बैडमिंटन प्लेयर ही रहे।

लक्ष्य सेन पेरिस ओलिंपिक के बैडमिंटन

लक्ष्य 5 साल की उम्र से बैडमिंटन खेल रहे हैं और बड़ों के खिलाफ हारने पर दुखी होकर रोने लग जाते थे। वह अब देश को ओलिंपिक मेडल दिला सकते हैं। 

पिता और दादा भी बैडमिंटन प्लेयर

16 अगस्त, 2001। उत्तराखंड के अलमोड़ा में बैडमिंटन प्लेयर डीके सेन के घर लक्ष्य का जन्म हुआ। लक्ष्य के परिवार में बैडमिंटन की जड़ें आजादी से भी पहले की है। उनके दादा चंद्र लाल सेन दिग्गज बैडमिंटन खिलाड़ी रहे। जिस कारण डीके ने भी बैडमिंटन खेला और उनके दोनों बेटों चिराग और लक्ष्य ने भी बचपन से ही बैडमिंटन को करियर बना लिया।

5 साल की उम्र में पहुंचे बैडमिंटन कोर्ट

खेलप्रेमी परिवार से होने के चलते 5 साल की उम्र में ही लक्ष्य अपने दादाजी के साथ अलमोड़ा के बैडमिंटन कोर्ट पहुंच गए। शहर में कोर्ट भी लक्ष्य के दादाजी ने ही बनवाया था, लेकिन कम सुविधाएं होने के कारण डीके सेन वहां से इंटरनेशनल लेवल तक नहीं पहुंच सके।

पिता और दादा के स्ट्रगल ने लक्ष्य का रास्ता आसान किया। स्कूल शुरू होते ही उन्होंने अपने बड़े भाई चिराग के साथ रेगुलर बैडमिंटन खेलना शुरू कर दिया। लक्ष्य सेन 5 साल की उम्र से बैडमिंटन खेल रहे हैं।

लक्ष्य सेन 5 साल की उम्र से बैडमिंटन खेल रहे हैं।

बेटे को ट्रैडिशनल बैडमिंटन नहीं सिखाई

डीके सेन प्रोफेशनल बैडमिंटन कोच हैं। उन्होंने अपने बैटों को ट्रैडिशनल ट्रेनिंग नहीं दी, जिसमें सर्विस सिखाने से ट्रेनिंग शुरू होती है। डीके ने अपने बेटों के साथ नॉर्मल बैडमिंटन खेलना शुरू किया, जैसे गलियों में भारत के बच्चे खेला करते हैं। ऐसा उन्होंने इसलिए किया, ताकि लक्ष्य की बैडमिंटन पर पकड़ बन सके।

डीके का मानना है कि ऐसा करने से लक्ष्य मेंटली मजबूत हुआ। लक्ष्य को इस दौरान उन्होंने छोटी-छोटी बैडमिंटन ड्रिल्स भी कराई। जिससे लक्ष्य पूरे कोर्ट को तेजी से कवर करना सीखे। बैडमिंटन में यह ड्रिल्स सबसे जरूरी हैं, लेकिन यह तभी की जाती है, जब प्लेयर को स्ट्रोक्स खेलने की आदत होती है। जबकि लक्ष्य ने पहले दिन से ही इन ड्रिल्स की आदत डाल ली थी।

डीके का कहना सिंपल है, ‘बैडमिंटन में स्ट्रोक खेलने के लिए आपको शटल के पीछे पहुंचना ही होगा। अगर शटल आपके शरीर के पीछे रह गई तो आप शॉट कैसे खेलोगे? युवा प्लेयर्स के लिए जरूरी है कि वह रनिंग बहुत करें। स्प्रिंटिंग भी जरूरी है, क्योंकि आपको कोर्ट पर स्पीड चाहिए होती है।’ 

डिफेंड करने की भी इंटेंस प्रैक्टिस कराई

शुरुआत में ही डीके ने दोनों भाइयों के डिफेंड करने की स्किल पर भी काम किया। सीनियर प्लेयर्स के साथ दोनों के मैच कराए, ताकि वह स्मैश से डरे नहीं और उन्हें आसानी से डिफेंड कर सके। उनकी कोचिंग स्किल की आलोचना भी हुई, लेकिन आज इन्हीं स्किल्स से लक्ष्य को सफलता मिल रही है।

डीके बताते हैं, ‘लक्ष्य को ​​​​​​अपनी उम्र से ​बड़े प्लेयर्स के साथ खेलने की आदत लग गई। वह अपने स्कूल में भी बड़ों की टीम का हिस्सा बनता। यहां तक कि बड़े बच्चों के कल्चरल प्रोग्राम में भी लक्ष्य आगे होकर हिस्सा लेते थे। टीचर उसे मना करते, लेकिन वह जिद करता और किसी तरह पार्टिसिपेट कर ही लेता था।’

पिता ने दोनों भाइयों को भेजा बेंगलुरु

उत्तराखंड में ज्यादा इम्प्रूवमेंट नहीं मिलते देख पिता ने 7 साल के लक्ष्य को चिराग के साथ बेंगलुरु भेजा। जहां प्रकाश पादुकोण एकेडमी में लक्ष्य अपनी बैडमिंटन स्किल्स को नई ऊंचाइयों पर ले गए। हालांकि, दादा अपने पोते लक्ष्य को सफल होते नहीं देख सके, 2013 में उनका निधन हो गया। लेकिन दादा अपने पोते में बैडमिंटन की आग जला चुके थे। पिता डीके सेन (बाएं) और प्रकाश पादुकोण (दाएं) के साथ लक्ष्य।

पिता डीके सेन (बाएं) और प्रकाश पादुकोण (दाएं) के साथ लक्ष्य।

मां बोलीं, हारने पर रोता था लक्ष्य

लक्ष्य की मां निर्मला ने एक इंटरव्यू में कहा है, ‘लक्ष्य को छोटी उम्र में बड़ी उम्र के लड़के हरा देते थे। वह हार से दुखी होकर रोता रहता था, लेकिन फिर भी बैडमिंटन खेलता। हारना उसे कभी पसंद नहीं था, उसमें हमेशा से जीतने की जिद थी।’ उनकी मां बताती हैं कि दोनों भाई पढ़ाई में भी तेज हैं। इंटरनेशनल टूर्नामेंट्स के बीच भी लक्ष्य उत्तराखंड ओपन यूनिवर्सिटी से अपनी ग्रेजुएशन पूरी कर रहा है।

सुबह 4:30 बजे ट्रेनिंग करते थे लक्ष्य

पिता कहते हैं, ‘लक्ष्य की ट्रेनिंग सुबह 4:30 बजे से शुरू हो जाती थी। दोनों 2 किमी दौड़ते और 200 मीटर स्प्रिंट भी करते। मैं उसे हमेशा चैलेंज करता था ताकि वह तेज भागे, लेकिन मैं जानबूझकर उससे हार भी जाता था। वह बहुत जिद्दी है और जीतने के लिए बहुत मेहनत करता है।’ इसी जिद से 2014 में लक्ष्य ने स्विज जूनियर इंटरनेशनल के रूप में अपना पहला जूनियर खिताब जीता।

अलमोड़ा में अपने माता-पिता और भाई चिराग के साथ लक्ष्य सेन (दाएं)।

2016 में जीती पहली सीनियर चैंपियनशिप

2016 तक लक्ष्य ने कई जूनियर चैंपियनशिप अपने नाम की। एशियन चैंपियनशिप में ब्रॉन्ज मेडल जीतना जूनियर लेवल पर उनकी बेस्ट परफॉर्मेंस रही। 2016 में ही उन्होंने सीनियर चैंपियनशिप खेलना शुरू कर दी और इसी साल इंडिया इंटरनेशनल सीरीज के रूप में अपना पहला सीनियर टूर्नामेंट जीता। अलमोड़ा में अपने माता-पिता और भाई चिराग के साथ लक्ष्य सेन (दाएं)।

लक्ष्य सेन ओलिंपिक के सेमीफाइनल में पहुंचने वाले पहले भारतीय पुरुष शटलर बने हैं।

यूथ ओलिंपिक में गोल्ड जीतकर बनाई पहचान

2018 में लक्ष्य ने यूथ ओलिंपिक्स का गोल्ड जीता और यहीं से बैडमिंटन जगत में उनकी नई पहचान बन गई। वह 2022 में थॉमस कप जीतने वाली टीम इंडिया का हिस्सा भी रहे। 2022 के ही कॉमनवेल्थ गेम्स में उन्होंने गोल्ड जीता। कॉमनवेल्थ के ही टीम इवेंट में उन्होंने सिल्वर भी अपने नाम किया।

लक्ष्य ने BWF वर्ल्ड टूर के 4 और इंटरनेशनल सीरीज के 7 खिताब जीते हैं। 2022 में 20 साल की उम्र में ही उन्हें अर्जुन अवॉर्ड से भी नवाजा गया था। लक्ष्य अब अपने डेब्यू ओलिंपिक में ही मेडल जीतकर इतिहास रच सकते हैं। लक्ष्य सेन ओलिंपिक के सेमीफाइनल में पहुंचने वाले पहले भारतीय पुरुष शटलर बने हैं।

पेरिस में शुरुआती 4 मैच 2-2 गेम में ही जीते

पेरिस ओलिंपिक से पहले लक्ष्य ने BWF के ज्यादातर टूर्नामेंट खेले। इंडोनेशिया ओपन के रूप में उन्होंने आखिरी टूर्नामेंट खेला, जिसमें वह क्वार्टर फाइनल हार गए। वह एकेडमी पहुंचे और पेरिस ओलिंपिक की तैयारी में जुट गए। पेरिस में उन्होंने ग्रुप स्टेज में तीनों मैच 2 ही गेम में जीत लिए।

प्री क्वार्टर फाइनल भी 2 गेम में जीता, फिर क्वार्टर फाइनल 3 गेम में जीतकर सेमीफाइनल में भी जगह बना ली। अगर लक्ष्य आज का मैच जीतने में कामयाब रहते हैं तो 2024 में यह उनका पहला ही फाइनल होगा। साथ ही यह ओलिंपिक के बैडमिंटन इतिहास में भारत का पहला ही मेंस कैटेगरी का मेडल भी होगा।

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एशियाई वुडबॉल चैंपियनशिप 2025 इंडोनेशिया में भारत ने जीते सिल्वर और ब्रॉन्ज

मूकनायक मीडिया ब्यूरो | 27 अगस्त 2025 | जयपुर – जकार्ता : भारतीय एथलीटों ने इंडोनेशिया बोगोर के जेएसआई रिज़ॉर्ट में आयोजित 13वीं एशियाई कप वुडबॉल चैंपियनशिप 2025 में कांस्य पदक जीता है। उद्घाटन समारोह में भारतीय वुडबॉल टीम का नेतृत्व हाथों में तिरंगा लहराते हुए डॉ प्रेम प्रकाश मीणा ने किया जो कि दिल्ली विश्वविद्यालय के लक्ष्मी बाई कॉलेज में सहायक प्रोफ़ेसर हैं। किंतु मैन स्ट्रीम मीडिया से यह ख़बर गायब है। इस चैंपियनशिप में ताइवान, चीन, ईरान, दक्षिण कोरिया, मलेशिया, हांगकांग, सिंगापुर, भारत और मेज़बान देश इंडोनेशिया सहित पूरे एशिया के सैकड़ों एथलीट भाग ले रहे हैं।

एशियाई वुडबॉल चैंपियनशिप 2025 इंडोनेशिया में भारत ने जीते सिल्वर और ब्रॉन्ज

भारतीय वुडबॉल टीम ने 7वीं AICE इंडोनेशिया वुडबॉल चैंपियनशिप 2025 में अपना शानदार खेल दिखाया है। भारतीय पुरुष टीम ने जहां इस टूर्नामेंट में कांस्य पदक जीता है तो सिंगल स्ट्रोक इवेंट में भरत कुमार ने सिल्वर मेडल जीता है।

वुडबॉल एक ऐसा खेल है जिसमें गेंद को गेट से पार कराने के लिए एक हथौड़े का इस्तेमाल किया जाता है। यह खेल घास, रेत या घर के अंदर खेला जा सकता है। यह खेल एशियाई समुद्र तट खेलों के कार्यक्रम में शामिल है और इसे 2008 में शामिल किया गया था। जल्द ही ओलंपिक गेम्स में भी हो सकता है शामिल। 

राजस्थान के भरत कुमार ने पुरुष एकल स्ट्रोक इवेंट में रजत पदक जीता

राजस्थान के भरत कुमार ने पुरुष एकल स्ट्रोक इवेंट में असाधारण कौशल और दृढ़ता दिखाते हुए रजत पदक जीता। उनके शानदार स्ट्रोक और दबाव में शांत रहने की क्षमता ने उन्हें मेडल दिलाया, जिससे वह भारत के सबसे होनहार वुडबॉल खिलाड़ियों में से एक बन गए। इसके अलावा, भारतीय पुरुष टीम ने स्ट्रोक प्रतियोगिता (टीम इवेंट) में कांस्य पदक हासिल कर शानदार सामूहिक प्रदर्शन किया। पदक विजेता टीम में शामिल थे:  
– विश्वराज परमार (गुजरात)  
– डॉ प्रेम प्रकाश मीणा (नई दिल्ली)  
– ललित डांगी (मध्य प्रदेश)  
– जयराज राठवा (गुजरात)  
– रितेश येतू गवास (गोवा)  
– सतीश चकाला (आंध्र प्रदेश)  

भारतीय वुडबॉल खिलाडियों की खूब हुई तारीफ

इंडोनेशियाई वुडबॉल एसोसिएशन (IWbA) के अध्यक्ष आंग सुनादजी ने खिलाड़ियों की उपलब्धियों की सराहना की और सुधार की गुंजाइश भी जताई। उन्होंने बुधवार, 20 अगस्त, 2025 को जकार्ता से एक आधिकारिक बयान में कहा, “मेजबान देश होने के नाते, अभी भी बहुत कुछ सुधार की आवश्यकता है। हालाँकि, ये केवल प्रारंभिक परिणाम हैं। कल, सभी टीमें अंतिम दौर में फिर से प्रतिस्पर्धा करेंगी, इसलिए सभी प्रतिभागियों के लिए अवसर खुला रहेगा।”

भारत में बढ़ रहा है वुडबॉल का क्रेज

भारतीय खिलाड़ियों ने अपनी मेहनत, समर्पण और दृढ़ संकल्प की बदौलत यह कामयाबी हासिल की है। दोहरे पदक ने न केवल भारत को गौरव दिलाया, बल्कि अंतरराष्ट्रीय वुडबॉल में देश की स्थिति को और मजबूत किया है। इस चैंपियनशिप में भारत के विभिन्न हिस्सों से कुल 24 सदस्यों की टीम ने हिस्सा लिया, जो देश में वुडबॉल की बढ़ती लोकप्रियता और पहुंच को दर्शाता है।

क्या बोले भारतीय कप्तान

भारतीय टीम की अगुवाई महाराष्ट्र के एडवोकेट सुदीप मनवटकर ने किया, जिनकी प्रेरणा और मार्गदर्शन ने खिलाड़ियों को प्रोत्साहित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जीत पर अपनी खुशी जाहिर करते हुए सुदीप ने कहा कि यह जीत भारतीय वुडबॉल की बढ़ती ताकत और देश में इस खेल के उज्ज्वल भविष्य को दिखाती है।

टीम मैनेजर राजेंद्र पिरनकर ने भी अपने मैनेजमेंट और नेतृत्व क्षमताओं के साथ खिलाड़ियों को प्रेरित किया और मैदान के अंदर और बाहर बेहतर कोऑर्डिनेशन सुनिश्चित किया। इंडोनेशिया में यह जीत भारतीय वुडबॉल के लिए एक मील का पत्थर है, जो न केवल व्यक्तिगत प्रतिभा की ताकत बल्कि टीम वर्क की भावना को भी दर्शाती है। विदेशी धरती पर तिरंगे का ऊंचा होना पूरे देश के लिए गर्व का क्षण है।

वुडबॉल को भारत में 2002 में लाया गया था और इसे वुडबॉल एसोसिएशन ऑफ इंडिया द्वारा बढ़ावा दिया जाता है , जो एक सरकारी पंजीकृत निकाय है जो राष्ट्रीय चैंपियनशिप का आयोजन करता है और अंतरराष्ट्रीय आयोजनों में टीमें भेजता है। खिलाड़ी गेंद को गेटों की एक श्रृंखला के माध्यम से मारने के लिए एक मैलेट का उपयोग करते हैं, यह खेल गोल्फ या क्रोकेट के समान है, और इसे विभिन्न सतहों पर खेला जा सकता है। भारत में वुडबॉल समुदाय बढ़ रहा है, जिसका प्रमाण एशियाई और विश्व चैंपियनशिप में भारतीय टीम की भागीदारी और नागपुर और वडोदरा जैसे शहरों में राष्ट्रीय आयोजनों का आयोजन है।

यह भी पढ़ें : जैसलमेर में मेघा गांव में जुरासिक काल के उड़ने वाले डायनासोर के जीवाश्म मिले

नागपुर 22 से 26 मार्च तक सीनियर और सब-जूनियर पुरुष एवं महिला राष्ट्रीय वुडबॉल टूर्नामेंट की मेज़बानी की। भारतीय वुडबॉल कैलेंडर में एक प्रमुख आयोजन होगा। इसके अतिरिक्त, वुडबॉल एसोसिएशन ऑफ इंडिया (WAI) ने इसी सत्र से राष्ट्रीय बीच वुडबॉल टूर्नामेंट शुरू करने का निर्णय लिया है।

भारत में वुडबॉल के बारे में मुख्य तथ्य:
परिचय: वुडबॉल को भारत में 2002 में पेश किया गया था।
शासी निकाय: वुडबॉल एसोसिएशन ऑफ इंडिया (WbAI) इस खेल को बढ़ावा देने और विकसित करने के लिए जिम्मेदार राष्ट्रीय निकाय है, जिसके 26 संबद्ध राज्य संघ हैं।
गेमप्ले: गोल्फ की तरह, खिलाड़ी एक निर्दिष्ट कोर्स में गेट के माध्यम से गेंद को मारने के लिए मैलेट का उपयोग करते हैं। यह खेल घास, रेत या घर के अंदर खेला जा सकता है।
अंतर्राष्ट्रीय भागीदारी: भारतीय टीम ने पहली बार 2003 में किसी अंतर्राष्ट्रीय चैम्पियनशिप में भाग लिया था और उसके बाद से विभिन्न विश्व और एशियाई चैम्पियनशिप में भाग लिया है।
राष्ट्रीय कार्यक्रम: डब्ल्यूबीएआई सीनियर और सब-जूनियर राष्ट्रीय वुडबॉल चैंपियनशिप जैसे आयोजनों का आयोजन करता है, जो हाल ही में नागपुर जैसे स्थानों पर आयोजित किया गया ।
विश्वविद्यालय स्तर: यह खेल विश्वविद्यालयों में भी लोकप्रिय है, तथा पारुल विश्वविद्यालय जैसे संस्थानों में अखिल भारतीय अंतर-विश्वविद्यालय वुडबॉल चैम्पियनशिप जैसे आयोजन किये जाते हैं।

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जैसलमेर में मेघा गांव में जुरासिक काल के उड़ने वाले डायनासोर के जीवाश्म मिले

मूकनायक मीडिया ब्यूरो | 21 अगस्त 2025 | जयपुर – जैसलमेर : जैसलमेर में मेघा गांव के पास तालाब के किनारे जुरासिक काल के उड़ने वाले डायनासोर के जीवाश्म (फॉसिल) मिले हैं। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि अभी जो सतह के बाहर दिख रहा है, वो जुरासिक काल के डायनासोर की रीढ़ की हड्डी हो सकती है। बाकी का पार्ट जमीन में 15 से 20 फीट नीचे है।

जैसलमेर में मेघा गांव में जुरासिक काल के उड़ने वाले डायनासोर के जीवाश्म मिले

जैसलमेर के भूजल वैज्ञानिक नारायण दास इणखिया ने बताया- 2 दिन पहले 19 अगस्त को ग्रामीणों को जीवाश्म मिले तो वे चौंक गए। इसके बाद 20 अगस्त को फतेहगढ़ प्रशासन को इसकी जानकारी जैसलमेर कलेक्टर प्रताप सिंह को दी। जैसलमेर प्रशासन ने इसकी सूचना हमें दी। गुरुवार को हम फतेहगढ़ उपखंड क्षेत्र के मेघा गांव पहुंचे।

जैसलमेर के भूजल वैज्ञानिक नारायण दास इणखिया का दावा है कि

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ये जैसलमेर के इतिहास में अब तक सबसे बड़ा कंकाल मिला है। जियोलॉजिकल सर्वे के अनुसार, हजारों साल पहले जैसलमेर समुद्र का किनारा रहा था, जहां डायनासोर खाने की तलाश में आते थे। ऐसे में यहां इनके जीवाश्म मिल रहे हैं।

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अब जियोलॉजिकल सर्वे की टीम जांच करेगी। जीवाश्म कितना पुराना है? किस जानवर का है? ऐसे सवालों के जवाब तभी मिल पाएंगे। भूजल वैज्ञानिक डॉ. नारायण दास इणखिया ने जीवाश्म का निरीक्षण कर इसे जुरासिक काल का होने का अनुमान लगाया है।

पहले वो तस्वीर, जिसमें जीवाश्म दिख रहे हैं…

भूजल वैज्ञानिक डॉ. नारायण दास इणखिया ने जीवाश्म का निरीक्षण कर इसे जुरासिक काल का होने का अनुमान लगाया है।

लाखों साल पुराना कंकाल सुरक्षित

डॉ. इणखिया ने बताया- प्राथमिक जांच करने पर यह जुरासिक काल का होने का अंदाजा लगा है। यानी ये डायनासोर या उसके किसी समकक्ष जीव की हड्डियों का कंकाल हो सकता है। अगर यह किसी अन्य जानवर की हड्डियां होती तो इसे अन्य मांसाहारी जानवर खा सकते थे।

ये कंकाल सुरक्षित है तो ये जीवाश्म बनने की प्रक्रिया में है और जम गया है। ऐसे में यह हजारों साल पुराना होने का अंदाजा है। इसके संरक्षण और शोध की आवश्यकता है। प्रशासन के माध्यम से जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया को लिखा जाएगा। इसके साथ ही शोध करने वालों को भी आमंत्रित किया जाएगा ताकि वे इसकी जांच कर हकीकत बता सकें।

डॉ. इणखिया ने बताया- जीवाश्म मिलना तो आम है। इसके साथ स्केलेटन मिलने से यह माना जा रहा है कि यह लाखों-करोड़ों साल पुराने अवशेष हो सकते हैं। ये किसी उड़ने वाले डायनासोर का हो सकता है, जिसकी लम्बाई करीब 20 फीट या उससे भी ज्यादा हो।

2 साल पहले खोज चुके डायनासोर का अंडा

जैसलमेर के भूजल वैज्ञानिक नारायण दास इणखिया को 2023 में जेठवाई पहाड़ी के पास ही मॉर्निंग वॉक के दौरान एक अंडे का जीवाश्म मिला था। यह लाखों वर्ष पुराने किसी अंडे का अवशेष था। इससे पहले थईयात की पहाड़ियों में भी डायनासोर के पदचिन्हों के निशान मिले थे, जिसे बाद में कोई चुराकर ले गया।

जैसलमेर में जुरासिक काल के प्रमाण मौजूद

डॉ. इणखिया बताते हैं- जैसलमेर में इससे पहले भी थईयात के आसपास के इलाकों में डायनासोर के पंजे के निशान मिले थे। इसके साथ ही आकल गांव में भी 18 करोड़ साल पहले के पेड़ मिले हैं, जो अब पत्थर हो गए हैं। आकल गांव में ऐसे पेड़ों के जीवाश्म को लेकर ‘वुड फॉसिल पार्क’ भी बनाया गया है।

तीन जगहों को कहते हैं डायनासोर का गांव

डॉ. इणखिया बताते हैं- जैसलमेर शहर में जेठवाई की पहाड़ी, यहां से 16 किलोमीटर दूर थईयात और लाठी को ‘डायनासोर का गांव’ कहा जाता है। इसकी वजह है कि इन जगहों पर ही डायनासोर होने के प्रमाण मिलते हैं। जेठवाई पहाड़ी पर पहले माइनिंग होती थी। लोग घर बनाने के लिए यहां से पत्थर लेकर जाते थे।

ऐसे ही थईयात और लाठी गांव में सेंड स्टोन के माइनिंग एरिया में डायनासोर के जीवाश्म मिलते हैं। तीनों गांवों में ही माइनिंग से काफी सारे अवशेष तो नष्ट हो गए थे। जब यहां डायनासोर के जीवाश्म मिलने लगे तो सरकार ने माइनिंग का काम रुकवा दिया। अब तीनों जगहों को संरक्षित कर दिया गया है।

मेघा गांव के पास प्राचीन जीवाश्म और कंकाल का ढांचा मिला है। कुछ ऐसे पत्थर हैं, जो जीवाश्म बन चुके हैं।

मेघा गांव के पास प्राचीन जीवाश्म और कंकाल का ढांचा मिला है। कुछ ऐसे पत्थर हैं, जो जीवाश्म बन चुके हैं।

जैसलमेर में थे डायनासोर ऐसे पता चला

डॉ. इणखिया बताते हैं- जुरासिक प्रणाली पर 9वीं इंटरनेशनल कांग्रेस आयोजित होने के बाद जयपुर के वैज्ञानिक धीरेंद्र कुमार पांडे और विदेशी वैज्ञानिकों की टीम वर्ष 2014 में जैसलमेर घूमने आई थी। तब टीम ने वुड फॉसिल पार्क विजिट किया और जुरासिक युग के फॉसिल (जीवाश्म) देखे।

इस दौरान टीम को जैसलमेर शहर से 16 किलोमीटर दूरी पर जैसलमेर-जोधपुर हाईवे के पास थईयात गांव के पास मिट्टी हटाने पर डायनासोर के पैरों के निशान मिले थे। तब स्टडी से अनुमान लगाया गया कि यह थेरोपोड डायनासोर के थे।

पैरों के निशान बलुआ पत्थर पर मिट्टी हटाने के बाद ऊपरी सतह पर मिले थे। इसी गांव में बाद में टेरोसॉरस रेप्टाइल डायनासोर की हड्डियां भी मिली थीं। भूजल वैज्ञानिक डॉ. नारायण दास इणखिया का मानना है कि ये जीवाश्म व कंकाल डायनासोर या उसके किसी समकक्ष जीव के हो सकते हैं।

भूजल वैज्ञानिक डॉ. नारायण दास इणखिया का मानना है कि ये जीवाश्म व कंकाल डायनासोर या उसके किसी समकक्ष जीव के हो सकते हैं।

डायनासोर खाना ढूंढने आते थे

डॉ. नारायण दास इणखिया ने बताया- जैसलमेर में डायनासोर खाने की तलाश में आते थे। आज से करीब 25 करोड़ साल पहले जैसलमेर से गुजरात के कच्छ तक बसा रेगिस्तान जुरासिक युग में टेथिस सागर हुआ करता था। यह वो समय था जब अमेरिका, अफ्रीका और इंडिया सभी देश एक ही महाद्वीप में थे। तब जैसलमेर से लगे टेथिस सागर में व्हेल और शार्क की ऐसी दुर्लभ प्रजातियां थीं, जो आज विलुप्त हो गई हैं।

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